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________________ ૧૮ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४५९ सन्मुखत्वेन परममवेन प्रवर्तते । यथा सेवकः राज्ञ सेवा करोति तथा रत्नत्रयधारिणां शिष्यः यो भव्यः अनुकूलत्वेन प्रवर्तते स प्रसिद्धः । उपचारो विनयः, औपचारिकोऽयं विनयो भवति । इति विनगत्तपोविधानं षष्ठम् ॥ ४५८ ॥ अथ वैयावृत्त्यं तपो गाथाद्वयेन विभावयति - जो उवयरदि जदीणं उवसग्ग- जराइ- खीण कायाणं । पूयादिसु' रिमेक्खं वेजावचं' तवो तस्स ॥ ४५९ ॥ [ छाया-य: उपचरति यतीनाम् उपसर्गजरा दिक्षीणकायानाम् । पूजादिषु निरपेक्षं वैयावृत्यं तपः तस्य ॥ ] तस्य साधोः वैयावृत्त्यं तपः । व्यावृत्तिः परदुःखादिहरणे प्रवृत्तिः व्यावृतेर्भावः वैयावृत्त्यम् । अथवा कान्यपीबादुः परिणामविनाशार्थ कावचेष्टया द्रव्यान्तरेणोपदेशेन च व्यावृमस्य यत्कर्म तद्वैयावृत्यं नाम तपोविधानं भवेत् । तस्य कस्य । यो महान् भव्यः यतीनाम् भ्राचार्योपाध्यायतपस्वि शैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधु मनोज्ञानां दशविधानां पुरुषाणां दशविधं वैयावृत्य भवति । पचधाचारं स्वयमाचरन्ति शिष्यादीनामाचारयन्तीत्याचार्याः १ मोक्षार्थमुपेत्याधीयते शाश्रं तस्मादित्युपाध्यायः गुरुः २ । महोपवासकायक्लेशादितपोऽनुष्टानं विद्यते यस्य स तपस्वी ३ । शास्त्राभ्यासशीलः शैक्षः ४ । रोगादिपीडितशरीरो ग्लानः ५ । वृद्धमुनिसमूहो गणः ६ वीक्षकाचार्य शिष्यसंघातः कुलं या स्त्रीपुरुषसंतानः कुलभूष मुनियत्यनगार लक्षण चातुर्वर्ण्यश्रवणसमूहः संघः, ऋध्यार्यिका श्रावकश्राविका समूह वा संघः ८ । चिरीक्षितः साधुः ९ । जाना, देव और गुरुके सन्मुख नीचे स्थानपर बैठना, या उनके बाईं ओर खड़े होना, ये सब कायिक उपचार विनय है । आर्थिका और श्रावकोंके मी आने पर उनकी यथायोग्य विनय करना चाहिये । गुरुजनोंके परोक्षमें भी उनके उपदेशोंका ध्यान रखना, उनके विषय में शुभ भाव रखना मानसिक उपचार विनय है । गुरु जनोंके प्रति पूज्य वचन बोलना- आप हमारे पूज्य हैं, श्रेष्ठ हैं इत्यादि, हित मित मधुर वचन बोलना, निष्ठुर कर्कश कटुक वचन न बोलना आदि याचिक उपचार विनय है । इस प्रकार विनय तपके पाँच मेद हैं। इस विनय तपका पालन करनेसे ज्ञानलाभ होता है और अतिचारकी विशुद्धि होती है। जिसमें विनय नहीं है उसका पठन पाठन सब व्यर्थ है। विनयी पुरुष स्वर्ग और मोक्षके सुखको प्राप्त करता है, तीर्थङ्करपद प्राप्त करके पांच कल्याणकका पात्र होता है, और चारों आराधनाओंको भजता है । कहा भी है 'विनय मोक्ष का द्वार है, विनयसे संयम, तप और ज्ञानकी आराधना सरल होती है, विनयसे आचार्य और समस्त संघ भी बशमें सबके साथ उसकी मित्रता हो जाता है ।' और भी कहा है- 'विनयी पुरुषका यश सर्वत्र फैलता है, रहती है, वह अपने ग्रर्चसे दूर रहता है, गुरुजन भी उसका सम्मान करते हैं, वह तीर्थकरोंकी आज्ञा का पालन करता है, और गुणानुरागी होता है।' इस प्रकार विनयमें बहुतसे गुण है। अतः विनय सपका पालन करना चाहिये ॥ ४५८ ॥ आगे दो गाथाओंसे वैयावृत्य तपको कहते हैं । अर्थ- जो मुनि उपसर्गसे पीड़ित हो और बुदापे आदिके कारण जिनकी काय क्षीण हो गई हो, जो अपनी पूजा प्रतिष्टाकी अपेक्षा न करके उन मुनियोंका उपकार करता है उसके वैयावृत्य तप होता है । भावार्थ - अपनी शारीरिक चेष्टासे अथवा किसी अन्य वस्तुसे अथवा उपदेशसे दूसरोंके दुःख दूर करनेकी प्रवृत्तिका नाम वैयावृत्य है। यह वैयावृत्य आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दस प्रकारके मुनियोंकी की जाती है। इससे वैयावृत्यके दस भेद हो जाते हैं। जो पाँच प्रकारके आचारका स्वयं पालन करते हैं और शिष्योंसे १ म सग पूजादिसु । २ ब (?) क म ग विजान चे I
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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