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१२. धर्मानुप्रेक्षा
वक्तृत्वादिगुणविराजितो लोकाभिमतो विद्वान् मुनिर्मनोशः, तागोऽसंयतराम्यम्टष्टिदो मनोशः १० एतेषां दशविधानां यतीनाम् उपचरति उपकुर्वते उपकारं व्याघ्रौ सति प्रासुको भक्तपानादिपध्यवसतिकासंस्तरणादिभिः उपकारं करोति, धर्मोपकरणैः पुस्तकैः सिद्धान्तदानैः उपकारं करोति तथा परीरहविनाशनैः उपकारं विदधाति मिध्या. त्वादिभने सम्यक्त्वे प्रतिष्ठापनम् बाह्यद्रव्यासं नवे कायेन ष्मायन्तर्भलायपनयनं तदनुकूलतानुष्ठानं करोति । कथम् । पूजादिषु निरपेक्षा पूजाख्यातिलाभमहत्त्यादिषु अपेक्षा द्वारहितं यथा भवति तथा। कीदृग्विधानां यतीनाम् उपसर्गअरादिक्षीणकायानां देवमनुष्य तिर्यग्जला भिवातपाषाणादिसंभवोपसर्ग प्राप्तानां जरया प्रस्वानां वृद्धानां क्षीणशरीराणां रोगैः कृत्वा क्षीणशरीराणां यतीनाम् उपकारं वैयावृत्त्यं करोति । तस्य भैयावृत्त्याख्यं तपो भवतीति । तथा चोकं १ 'करचरणसिरसाण महणभंगसेवकिरिया हि । उपपत्तिणपसारणा कुचणाई || पडिजमाणेहिं तणुजोयसपाहिं मेस जेहिं तद्दा उचारादीण विकिंचणेहिं तणुधोवणेहिं च ॥ थारसोहणेहि य वेयावचं सया पयतेण । कायदे सीए निविदिगिच्छेग भावेण || देहतवणिय मजम सीलसमाही य अभयदानं च गदिमदिवलं च दिण्णं वेयाव करतेण ॥' इति । किंबहुना, वैयावृत्त्यकारी जीवः यशः कीर्तिजिनाज्ञा रूपसंपदा स्वर्गमोक्षसुखं प्राप्नोति ॥ ३५९ ॥
जो वावरइ सरु सम-दम-भावग्मि सुद्ध' - उबजुत्तो । लो-ववहार-बिरदो' घेयावज्रं परं तस्स || ४६० ॥
पादन कराते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं। जिनके समीप जाकर मोक्षके लिये शाखाध्ययन किया जाता है उन्हें उपाध्याय अर्थात् विद्यागुरु कहते हैं। जो बड़े बड़े उपवास करता हो, कायक्लेश आदि तपोंको करता हो उसे तपखी कहते हैं। जो शास्त्रोंका अभ्यास करता हो वह शैक्ष्य है। जिसका शरीर रोग से पीवित हो वह ग्लान है । वृद्ध मुनियोंके समूहको गण कहते हैं। दीक्षाचार्यकी शिष्य- परम्पराको कुल कहते हैं । ऋषि यति मुनि और अनगारके भेदसे चार प्रकार के श्रमणके समूहको संघ कहते हैं। अथवा मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका समूहको संघ कहते हैं । जिसको दीक्षा लिये चिरकाल होगया हो उसे साधु कहते हैं । जो विद्वान मुनि वक्तृत्व आदि गुणोंसे सुशोभित हो और लोकमें जिसका सन्मान हो उसे मनोज्ञ कहते हैं । उक्त गुणोंसे युक्त असंत सम्यग्दृष्टि भी मनोज्ञ कहा जाता है । इन दस प्रकारके मुनियोंको व्याधि होने पर प्रासुक औषधि, पथ्य, वसतिक्का और संधरा वगैरहके द्वारा उनकी व्याधिको दूर करना, धर्मके उपकरण पुस्तक आदि देना, परीषहका दूर करना, उनके मिध्यात्वकी ओर अभिमुख होनेपर उन्हें सम्यक्त्वमें स्थिर करना, उनके श्लेष्मा आदि मलोको फेंकना, तथा उनके अनुकूल चलना, ये सब वैयावृत्य है । यह वैयावृत्य ख्याति लाभ आदि की भावनासे नहीं करना चाहिये। कहा भी है- हाथ, पैर, पीठ और सिर का दबाना, तेल मलना, अंग सेकना, उठाना, बैठाना, अंग फैलाना, सिकोड़ना, करवट दिलाना, आदि कार्योंके द्वारा, शरीरके योग्य अन्न पान तथा औषधियोंके द्वारा, मल मूत्र आदि दूर करने द्वारा, शरीरका धोना, संपरा आदि चिछाना आदि कार्यो के द्वारा ग्लानिरहित भावसे शक्तिके अनुसार वैयावृत्य करना चाहिये । वैयावृत्य करनेवाला देह, तप, नियम, संयम, शक्तिका समाधान, अभयदान, तथा गति, मति और बल देता है ॥ ४५९ ॥ अर्थ - विशुद्ध उपयोग से युक्त हुआ जो मुनि राम दम भाव रूप अपने आत्मखरूपमें प्रवृत्ति करता है और लोकव्यवहारसे विरत रहता है, उसके उत्कृष्ट वैयावृत्य तप होता है | भावार्थ - रागद्वेष से रहित साम्य भावको राम कहते हैं,
१ क म सग सुद्धि । २ भ विवहार ३ ब विरभो । ४ म विज्ञान ( १ ), स वेज्जावचं ।