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१२. धर्मानुप्रेक्षा
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दिने दिवसे, अपिशब्दात् सर्वस्मिन् दिने दर्श दानं किं करोतीत्याह । उत्तमं सर्वोत्कृष्टम् इन्द्र कल्पवासिनां देवेन्द्राणां सौधर्मेन्द्रादीनां सुखं शर्मे ददाति वितरति । उक्तं च तथा "सम्मादिट्ठी पुरियो उत्तमपत्तस्स दिष्णदाणेण । उप्पा दिवलोए हवे स महडिओ देवो ॥ १ ॥ मिच्छादिद्धी पुरिसो दाणं जो देदि उत्तमे पत्ते । सो पावइ वर भोए फुड उत्तममोयभूमीसु ॥ २ ॥ ममते मज्झिमभोभूमी पावए भोए। परवड़ जहणभोए जणपतस्स दाणेण ॥ ३ ॥ उत्तम पर्य फलह जहा कोडिलक्ख गुण्णेहिं । दाणं उत्तमपणे फलइ तहा किमित्थ भणिएण ॥ ४ ॥" इति । तथा च सूत्रे 'विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात् तद्विशेषः' | सुपात्रप्रतिमा दिन प्रकार पुण्योपार्जन विधिय्यते । तस्य विधेः विशेषः आदरोऽनादरश्च । आदरेण विशिष्टं पुण्यं भवति । अनादरेण अविशिष्टं पुण्यमिति १ द्रव्यं मकारत्रयरहित तन्दुलगोधूमविकृतिष्टतादिकं शुद्धं
त्रास्पृष्टं तस्य विशेषः ग्रहीतुर्मुनेस्तपःस्वाध्यायशुद्धपरिणामादिवृद्धिहेतुः विशिष्टपुण्यकारणम् अन्यथा अन्यादशकारंशम् । 'जो पुण हुंत कणभाई मुणिहिं कुभोयणु दे। जम्मि जम्मि दालिचव पुणि तहु मुंडे ॥ २ । दाता द्विजवृपवाणिज वर्णवर्णनीय स्वस्य विशेषः पात्रेऽनसूयः स्यागे विषादरहितः दातुमिच्छुः दाता ददद्भवत्प्रीतियोगः शुभपरिणामः दृष्टफलानपेक्षकः समगुणसमेतः दाता ३ । पात्रमुत्तममध्यम जघन्यभेदम्, तत्रोत्तर्म पात्रं महाव्रतविराजितं मध्यमपात्रं श्रावकवत पवित्र जघन्यपात्रं सम्यक्त्वैम निर्मलीकृतम्, तस्य विशेषः सम्यग्दर्शनादिशुद्धाशुद्धिः तद्विशेषः तस्य दानस्य फलविशेषस्तद्विशेषः । तथा अतिथिसंविभागस्य पश्चातिचारा वर्जनीयाः । वे के । 'सचिननिक्षेपापिधान परव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः । सचिते
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संघके शरीर में शक्ति आती है। नीरोगता वगैरह रहती है और उनके होनेसे ज्ञान ध्यानका अभ्यास, तत्त्वचिन्तन, श्रद्धा, रुचि, पर्वमें उपवास, सीर्थयात्रा, धर्मका उपदेश सुनना सुनाना आदि कार्य सुखपूर्वक होते हैं। तथा ध्यानी ज्ञानी निर्ग्रन्थ मुनिको छियालिस दोषों और १४ मलोंसे रहित दान एक दिन मी देनेसे कल्पवासी देवोंके सौधर्मेन्द्र आदि पदोंका सुख प्राप्त होता है। कहा भी है- "जो समयदृष्टि पुरुष उत्तम पात्रको दान देता है वह उत्तम भोगभूमिमें जन्म लेता है । जो मध्यम पात्रको दान देता है वह मध्यम भोगभूमिमें जन्म लेता है । और जो जघन्य पात्रको दान देता है वह जधन्य भोग भूमिमें जन्म लेता है। जैसे उत्तम जमीन में बोया हुआ बीज लाख करोड़ गुना फलता है वैसे ही उत्तम पात्रको दिया हुआ दान मी फलता है ।" तत्त्वार्य सूत्र में भी कहा है- 'विधि विशेष, द्रव्य, विशेष, दाता विशेष और पात्र विशेषसे दान में विशेषता होती है।' आदरपूर्वक दान देना विधिको विशेषता है क्यों कि आदर पूर्वक दान देनेसे विशेष पुण्य होता है और अनादर पूर्वक दान देनेसे सामान्य पुण्य होता है। मुनिको जो द्रव्य दिया जाये उसमें मय मांस मधुका दोष न हो, चावल गेहूं घी वगैरह सब शुद्ध हो, चमड़े के पात्र में रक्खे हुए न हो । जो द्रव्य मुनिके तप, स्वाध्याय और शुद्ध परिणामों आदिकी दृद्धिमें कारण होता है वह द्रव्य विशेष है। ऐसे द्रव्यके देनेसे विशिष्ट पुण्य बन्ध होता है, और जो द्रव्यं आलस्म रोग आदि पैदा करता है उससे उल्टा पापबन्ध या साधारण पुण्यबन्ध होता है। कहा भी है- 'जो पुरुष घरमें धन होते हुए भी मुनिको कुभोजन देता अनेक जन्मोंमें मी दारिद्र्य उसका पीछा नहीं छोड़ता ।' दाता ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य वर्णका होना चाहिये । पात्रकी निन्दा न करना, दान देते हुए खेदका न होना, जो दान देते हैं उनसे प्रेम करना, शुभ परिणामसे देना, किसी दृष्टफलकी इच्छासे न देना और सात गुण सहित होना, ये दाताकी विशेषता है। पान तीन प्रकारका बतलाया है- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य | सम्यग्दर्शन, व्रत वगैरह का निर्मल होना पात्रकी विशेषता है । इन सब विशेषताओंके होने से दानके फल्में भी विशेषता होती है । अतिथिसंविभाग व्रतके भी पांच अतिचार कहे हैं - सचित केले