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स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० ३६५
सुक्खयरो ॥ ४ ॥ आहारसणे देहो देहेण नवो संवेग रडणं । रयमासे वरणाणं गाणे मोक्खो जिंगो भइ ॥ ५ ॥” ३६३-६४ ॥ अथ दानस्य माहात्म्य गाधाद्वयेन विशदयति
इह-पर-लोय - गिरीही दाणं जो देदि परम-भतीए । रयणसए' सुविदो' संघो सयलो हवे तेण ॥ ३६५ ॥ उत्तम-पत्त-विसेसे उत्तम भत्तीऍ उत्तमं दाणं । एय-दिणे वि य दिण्ण" इंद-मुहं उत्तमं देदि ॥
३६६ ॥ *
[ छाया-इह परलोकनिरीहः दानं यः ददाति परमभक्त्या । रात्रचे सुस्थापितः संघः सकलः भवेत् तेन ॥ उत्तमपात्रविशेषे उत्तमभक्त्या उत्तमं दानम् । एकदिने अपि च दतम् इन्द्रसुखम् उत्तमं ददाति ॥ ] यः अतिभिसंविभाग शिक्षावती श्रावको दाता दानं ददाति आह रादिकं प्रयच्छति । क्या । परमभसया उत्कृष्टानुरागेण परमप्रीत्या परमश्रद्धया रुच्या भावेन स्वयमेवात्मना स्वहस्तेन पदातिए खाना सुतोत्पत्ती व कः सुधीः । अन्यत्र कार्यदेवाभ्यां प्रतिहस्तं समादिशेत् ॥ कीटकू वाता सन् । इहपरलोकनिरीहः य इहलोके यशः कीर्तिख्यातिमहिमाधन सुवर्णरत्न माणिक्यगोमहिषीबलीवर्दधान्यादिप्राप्तिः पुत्रकलत्रमित्रसुखाद्याप्तिः मन्त्र तन्त्र यन्त्र विद्याविभवादिप्राप्तिः परलोके स्वर्गाप्सरोराज्यरूपनिमान नरेन्द्रदेवेन्द्र धरणेन्द्रसंपदाधनधान्यादिप्राप्तिश्व तत्र तेषु निरीहः वाच्छारहितः कर्मक्षयार्थी तेन श्राद्धेन दात्रा सफलसंघः ऋषिमुनियलनगारः अथवा सत्यार्थिकाश्रावक श्राविका लक्षणः चतुर्विधसंघः स्थापितः स्थिरीकृतो भवति । केषु । रत्नत्रयेषु क्ष्ममहारनिश्रयसम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रेषु सर्वसंघः स्थिरीकृतः । कथं रत्नत्रयेषु स्थापितो भवति संघ इति चेत्, सरसाहारेण संघस्य वपुषि शक्तिर्भवति, आरोग्यादिकं च स्यात् तेन तु ज्ञानध्यानाभ्यासतंत्र्यचिन्तनश्रद्धारुचिपर्योपवासादितीर्थयात्राधर्मोपदेशश्रवणश्रावणादिकं सुखेन प्रवर्तते इति । उत्तम पात्रविशेषे ध्यानाध्ययनविशिष्टनिर्धन्यमुनये उत्तमदानं धात्र्यादिपद्धत्वारिंशदोषविरहितं चतुर्दशमलरहितं च दानं वितरण प्रदानं दत्तं सत् । एकस्मिन्नपि
रूप, ज्ञान वगैरह तभी तक हैं जब तक शरीरमें सुख दायक आहार पहुँचता है । आहारसे शरीर रहता है । शरीर से तपश्चरण होता है। तपसे कर्मरूपी रजका नाश होता है । कर्मरूपी रजका नाश होने पर उत्तम ज्ञानकी प्राप्ति होती है और उत्तम ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है ।" ॥ ३६३-३६४ ॥ आगे दो गाथाओंसे दानका माहात्म्य स्पष्ट करते हैं । अर्थ-जो पुरुष इस लोक और परलोक्के फलकी इच्छासे रहित होकर परम भक्तिपूर्वक दान देता है वह समस्त संघको रत्नत्रयमें स्थापित करता है । उत्तम पात्रविशेषको उत्तम भक्ति के द्वारा एक दिन भी दिया हुआ उत्तम दान इन्द्रपदके सुखको देता है ॥ भावार्थ - अतिथिसंविभागका पालक जो श्रावक इस लोकर्मे यश, ख्याति, पूजा, धन, सोना, रन, स्त्री, पुत्र, यंत्र, मंत्र, तंत्र आदिकी चाह न करके और परलोकमें देवांगना, राज्य, नरेन्द्र, देवेन्द्र और धरणेन्द्रकी सम्पत्ति तथा धनधान्यकी प्राप्तिकी चाह न करके अत्यन्त श्रद्धाके साथ स्वयं अपने हाथसे सत्पात्रको दान देता है, दूसरेसे नहीं दिलाता, क्यों कि कहा है- "यदि कोई बहुत जरूरी काम न हो या दैवही ऐसा न हो तो धर्मसेवा, स्वामीकी सेवा और संतान उत्पन्न करना, इन कामों को कौन बुद्धिमान पुरुष दूसरेके हाथ सौंप सकता है?" वह पुरुष ऋषि, यति, मुनि और नगर के मेदसे अथवा मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका के भेद से चार प्रकार के संघको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयमें स्थापित करता है । क्योंकि सरस आहार करनेसे २ ल स ग रमणत्तये । ३ सुविद्रो (१) । ४ म विसेसो ५ दिने । ६. व होदि । १७ ब दर
१ ब देह पुरस्ादि ।