SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [मा० १९३येषां ते अन्तरात्मानःपरमसमाधिस्थिताः सन्तः देइविभिन्न शानमयं परमात्मानं ये जानन्ति ते मन्तरात्मानो भवन्तीत्यर्थः) तथा चोक्तम् । “देहविभिण्णउ णाणमत जो परमप्पु णिएइ । परमसमाहिपरिट्टिय पंडिउ सो जि हवे।।' अपि च केचन परमात्मानः, (परा सर्वोत्कृष्टा मा अन्तरावहिरङ्गालक्षणा अनन्तचतुष्यादिसमवसरणाविरूपा लक्ष्मीर्येषो ते परमाः सेचते मात्मानः परमात्मानः) ते द्विविधा अइन्तः षट्चत्वारिंशगुणोपेतातीर्थंकरपरमदेवादयः । तथा चसद्धिः खारमोपलब्धिर्येषां ते सिद्धाःसम्यक्त्वाद्यष्टगुणोपेता यानन्तान्तगुणविराजमानाः लोकप्रिनिवासिनव ॥ १९२॥ कीहक्षो पहिरास्मा इत्युक्ते चेतुच्यते - मिच्छत-परिणदप्पा तिव्व कसाएण सुई आविड़ो। जीवं देहं एक मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥ १९३ ॥ छाया-मिथ्यात्वपरिणतात्मा तीनकषायेण सुक्षु आविष्टः । जीवं देहम् एकं मन्यमानः भवति बहिरात्मा ॥J होवि भवति । कः । यहिरात्मा । कीडक । मिथ्यात्वेन परिणतः आत्मा यस्यासौ मिथ्यात्वपरिणतात्मा। पुनःकिमतः । तीयकवायेणानन्तानुबन्धिलक्षणेन क्रोधादिना सुष्व अतिशयेन आविष्टः गृहीतः। पुनरपि कीदृक्षः । बहिरात्मा जी देहर एक मन्यमानः, देहः शरीरमेव जीव आत्मा श्यनयोरेकवं मन्यमानः अनुभवन् मूहात्मा भवतीखः । पुणस्थानमाश्रियोत्कृष्टादिबहिरात्मानः । तत्कथ मिति चेतदुच्यते । उत्कृष्टा बहिरात्मानो गुणस्थानादिमे स्थिताः, द्वितीये मध्यमाः, मित्रे गुणस्थाने जघन्यका इति । १९३ ॥ अन्तरात्मनः खरूपं गाथात्रिकेन दर्शयति जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीव-देहाणं । णिज्जिय-दु-मया अंतरप्पा य ते तिविहा ॥ १९४ ॥ [छाया-ये जिनवचने कुशलाः भेदं जानन्ति जीवदेहयोः । निर्जितदुष्टाष्टमदाः अन्तरात्मानः च ते त्रिविधाः।। ते प्रसिद्धा अन्तरात्मानः कम्यन्ते । ते के। ये जिनपचन्ने कुशलाः, जिनामा वीर्यकरगणघरदेवादीना क्यने IGRIH स्थानकी अपेक्षासे बहिरात्माके उत्कृष्ट आदि भेद बतलाये हैं जो इस प्रकार है-प्रथम गुणस्थानमें स्थित जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा हैं, दूसरे गुणस्थानवाले मध्यम बहिरात्मा हैं और तीसरे मिश्र गुणस्थान वाले जघन्य बहिरात्मा हैं । विशेष अर्थ इस प्रकार है । जो जीव शरीर आदि परद्रव्यमें आत्मबुद्धि करता है वह बहिरात्मा है। और इस प्रकारकी बुद्धिका कारण मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायका उदय है । मिप्यात्य और अनन्तानुबन्धीका उदय होनेसे शरीर आदि परद्रव्योंमें उसका अहंकार और ममत्वभाव रहता है। शरीरके जन्मको अपना जन्म और शरीरके नाशको अपना नाश मानता है। ऐसा जीव बहिरात्मा है । उसके भी तीन भेद है-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । प्रथम मिथ्यात्व गुण स्थानवी जीव उत्कृष्ट बहिरान्मा है; क्योंकि उसके मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायका उदय रहता है। दूसरे सासादन गुणस्थानवी जीव मध्यम बहिरात्मा है; क्योंकि यह अनन्तानुबन्धी कषायका उदय हो शानेके कारण सम्यक्त्वसे गिरकर दूसरे गुणस्थानमें आता है उसके मिथ्यात्वका उदय नहीं होता। तीसरे मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव जघन्य बहिरात्मा है; क्योंकि उसके परिणाम सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हुए होते हैं तथा उसके न तो मिथ्यात्वका उदय होता है और न अनन्तानुबन्धीका उदय होता है ॥ १९३ ॥ अब तीन गाथाओंसे अन्तरात्माका स्वरूप कहते हैं। अर्थ-जो जीव जिनयचनमें कुशल है, जीन और देहके भेदको जानते हैं तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदोको जीत लिया है वे अन्तरात्मा है । वे तीन प्रकारके है॥ भावार्थ-अन्तरात्माओंका कथन १ग विभा। २ बम हु, ल कसापड, स सापसु सुद्ध, ग कसापमुष्टियाविट्टो । १ स मेद (१)1 ४ [अंतर भम्पा ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy