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________________ ११ १०. लोकानुभेक्षा भदिस्यर्थः (वीर्यते संसारोऽनैनेति तीर्थम् ) कीहक् सन् जीवः । रसत्रयसयुक्तः, व्यवहारनिश्चयसम्पग्दर्शनशानचालकरूपरमत्रयेण सहितः आत्मा तीर्थ स्यात् । यतः यस्मात्कारणात् तरति । कम् । तं संसारै भवसमुदम् । संसारसमुद्रस पार गच्छतीत्यर्थः । कया । रसत्रयदिव्यनावा रजत्रयसर्वोत्कृष्टतरण्या सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्रस्पनौकया आत्मा भवसमुद्र तरतीस्यर्थः ॥ १९१॥ अथालोऽन्येऽपि जीवप्रकारा मण्यन्ते जीया हवंति तिविहाँ बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥ १९२॥ [छाया-जीवाः भवन्ति त्रिविधाः बहिरात्मा तया च अन्तरात्मा । परमात्मानः अपि च द्विधा भईन्तः तथा व सिद्धाः ॥] जीवाः भारमान: त्रिविधाः त्रिप्रकारा भवन्ति । एके केचन बहिरात्मानःबहिव्यविषये हामीमामलबालिसेतनातन पे मामा येषां तु नहिरात्मानः अन्तः अभ्यन्तरे शरीरावैभित्रप्रतिभासमानः आरमा द्वारा संसारको तिरा जाये उसे तीर्थ कहते हैं । सो व्यवहार और निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रनत्रयसे सहित यह आत्मा ही सब तीर्योसे उत्कृष्ट तीर्थ है; क्योंकि यह आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यश्चारित्रमय खत्रयरूप नौकामें बैठकर संसार रूपी समुद्रको पार कर जाता है। आशय यह है कि जिसके द्वारा तिरा जाये यह तीर्थ कहा जाता है, सो यह जीव स्वयको अपनाकर संसार समुद्रको तिर जाता है अतः रसत्रय तीर्थ कहलाया। किन्तु स्नत्रय तो आमाका ही धर्म है, आत्मासे अलग तो रक्षत्रय नामकी कोई वस्तु है नहीं । अतः आत्मा ही तीर्थ कहलाया । वह आत्मा संसारसमुद्रको स्खयही नहीं तिरता किन्तु दूसरोंके भी तिरनेमें निमित्त होता है अतः वह सर्वोत्कृष्ट तीर्थ है ॥ १९१ ।। अब दूसरी तरहसे जीके मेद कहते हैं । अर्थ-जीव तीन प्रकारके है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । परमात्माके भी दो भेद हैं-अरहंत और सिद्ध । भावार्थ-आस्मा तीन प्रकारके होते हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बाह्य द्रव्य शरीर, पुत्र, सी वगैरहमें ही जिनकी आत्मा है अर्थात् जो उन्हें ही आत्मा समझते हैं वे बहिरारमा हैं। जो शरीरसे मिन्न आत्माको जानते हैं के अन्तरात्मा है। अर्थात् जो परम समाधिमें स्थित होकर शरीरसे भिन्न ज्ञानमय आत्माको जानते हैं वे अन्तरात्मा हैं । कहा भी है-जो परम समाधिमें स्थित होकर देहसे भिम ज्ञानमय परम आत्माको निहारता है वही पंडित कहा जाता है ॥ १ ॥ 'पर' अर्थात् सबसे उत्कृष्ट, 'मा' अर्थात् अनन्त चतुष्टय रूप अन्तरंग लक्ष्मी और समवसरण आदिरूप बाह्य लक्ष्मीसे विशिष्ट आत्माको परमात्मा कहते हैं। वे परमात्मा दो प्रकारके होते हैं-एक तो छियालीस गुण सहित परम देवाधिदेव अईन्त तीर्थंकर और एक सम्यक्त्व आदि आठ गुण सहित अथवा अनन्त गुणोंसे युक्त और खात्मोपलब्धिरूप सिद्धिको प्राप्त हुए सिद्ध परमेष्ठी, जो लोकके अग्रभागमें विराजमान हैं ॥ १९२ ॥ अब बहिरात्माका खरूप कहते हैं । अर्थ-जो जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयरूप परिणत हो, तीन कषायसे अच्छी तरह आविष्ट हो और जीव तथा देहको एक मानता हो, वह बहिरात्मा है । भावार्थ-जिसकी आत्मा मिथ्यात्वरूप परिणत हो, अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि तीन कषायसे जकली हुई हो और शरीर ही आत्मा है ऐसा जो अनुभव करता है वह मृद जीव बहिरात्मा है। गुण १म जीयो। २ अतिवा।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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