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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० १९१
पापखरूपो जीवः नित्यं सश अतितीव्रकषायपरिणतः, अतितीवाः अनन्तानुबन्धिकोधमानमायालोभकषायादयः मिथ्यात्वादयश्च तैः परिणतः तस्परिणामयुक्तः इत्यर्थः । अपि पुनः जीवो भवति । किं तत् । पुण्यं पुण्यरूपः स्यात् । कीदृक् । संयुक्तः सहितः । केन । उपशमभावेन, उपशमसम्यत्तत्रोपसयचारित्रपरिणामरूपेण सहितः । उपलक्षणमेतत् । तेनायिकसम्य विक्षायिक चारित्र । दिरूपेण परिणतः जीवः पुण्यरूपो भवति अपिशब्दाद्वा पुण्यपापरहितो जीवो भवति । कोऽसौ । अईन् सिद्धपरमेष्ठी मीषः । तथा गोम्मटसारे पापजीवाः पुण्यजीवाः पुण्यं पापं चेति यदुक्तं तदुच्यते । "जीविदरे कम्मचये पुण्णं पावो ति होदि पुष्णं तु । सुहपयडीणं दबे पावं असुहाग दव्वं तु ॥" जीवपदार्थप्रतिपादने सामान्येन गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टयः सासादनाश्व पापजीवाः । मिश्राः पुण्यपापमिश्रजीवाः सम्यक्तत्र मिध्यात्व मिश्रपरिणामपरिणतत्वात् । असंयताः सम्यत्तत्वेन, देशसंयताः सम्यकचेन देशत्रसेन च युक्तत्वात् पुण्यजीषा एक्ट युक्ताः । अनन्तरम् अजीवपदार्थ प्रकारको शुभप्रकृतीनां सदेवशुभा युर्नामगोत्राणां दध्यं पुण्यं भवति । अशुभनामसदेयादिव प्रशस्त प्रकृतीनां द्रव्यं तु पुनः पापं भवति ॥ १९० ॥ तथा जीवस्तीर्थभूतो भवति तदाह
रयणत्तय संजुत्तो जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं ।
संसारं तर जदो रयणत्तय-दिव्य णावाएं ॥ १९१ ॥
[छाया - रात्रयसंयुक्तः जीवः अपि भवति सत्तमं तीर्थम् । संसार तरति यतः रत्नत्रयदिव्यनावा ॥ ] पि पुनः जीवो भवति । किं तत्। उसमें सर्वोत्कृष्टं तीर्थ, सर्वेषा तीर्थानां मध्ये सर्वोत्कृष्टः अनुपमः तीर्थभूतो जीवो व्रतसे सहित होनेसे और प्रमत्त संयत आदि गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक्त्व और महावत से सहित होनेसे पुण्यात्मा जीव हैं । अजीव पदार्थका वर्णन करते हुए चूंकि कार्मणस्वन्ध पुण्यरूपभी होता है और पापरूपभी होता है अतः अजीवके भी दो भेद हैं । उनमें से सातावेदनीय, नरकायुके सिया शेष तीन आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र इन शुभ प्रकृतियोंका द्रव्य पुण्यरूप है । और घातिया कर्मोकी सब प्रकृतियां, असातावेदनीय, नरकायु, अशुमनाम, नीचगोत्र इन अशुभ प्रकृतियोंका द्रव्य पापरूप है । विशेषार्थ इस प्रकार है । क्रोध मान माया और टोभकषायकी तीव्रता से तो पापरूप परिणाम होते हैं, और इनकी मन्दताले पुण्यरूप परिणाम होते हैं। जिस जीवके पुण्यरूप परिणाम होते हैं वह पुण्यात्मा है, और जिस जीवके पापरूप परिणाम होते हैं वह पापी है। इस तरह एक ही जीव कालभेद से दोनों तरहके परिणाम होने के कारण पुण्यात्मा और पापात्मा कहा जाता है ! क्योंकि जब जीव सम्यक्त्व सहित होता है तो उसके तीव्र कषायोंकी जड़ कट जाती है अतः वह पुण्यात्मा कहा जाता है । और जब वही जीव मिध्यास्थ में था तो उसके कषायोंकी जड़ अड़ी गहरी थी अतः तब वही पापी कहलाता था । आजकल लोग जिसको धनी और ऐश्वर्यसम्पन्न देखते हैं भलेही वह पाप करता हो उसे पुण्यात्मा कहने लगते हैं, और जो निर्धन गरीब होता है भलेही वह धर्मात्मा हो उसे पापी समझ बैठते हैं। यह लोगों की समझकी गरती है । पुण्य और पापका फल भोगनेवाला पुण्यात्मा और पापी नहीं है, जो पुण्यकर्म शुभभावपूर्वक करता है वही पुण्यात्मा है और जो अशुभ कर्म करता है वही पापी है हैं ॥ १९० ॥ आगे कहते हैं कि वही जीव तीर्थरूप होता है उत्तम तीर्थ है; क्योंकि वह रत्नत्रय रूपी दिव्य नावसे संसारको पार करता है || भावार्थ - जिसके
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पापपुण्यका सम्बन्ध जीवके भावोंसे
। अर्थ - रत्नत्रय से सहित यही जीव
१ नागाम ।