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________________ -१० ] १०. लोकानुप्रेक्षा ૧૦ भुडे ज्ञानावरणादिपुलकर्मफलं साता सातजं सुखदुःखरूपं भुनक्ति । सोऽपि संसारे द्रव्यादिपचप्रकारे भने भुजति भुनक्ति । कि तत्। विविधं नानाप्रकारम् अनेक प्रकारं कर्मविपाकं कर्मोदयम् अशुभं निम्बकाजीरविषहालाहलरूपं शुभ गुण्डशर्करामृत्तरूपं स भुंके । अपिशब्दात् निश्चयनयेन रागादिविकल्पोपाधिरहितो जीवः स्वात्मोत्थमुखामृतभोका भवति ॥ १८९ ॥ जीयो वि हवे' पावं अइ तिब्व- कसाय परिणदो णिचं | जीवो वि हवई पुर्ण उवसम-भावेण संजुत्तो ॥ १९० ॥ [ छाया - जीवः अपि भवेत् पापम् अतितीयकषायपरिणतः नित्यम् । जीनः अपि भवति पुण्यम् उपशमभावेन संयुक्तः ॥ ] जीवः आत्मा पापं भवति पापस्वरूपः स्यात् । अपिशब्दात् पापपुण्याभ्यां मिश्रो भवति । कीदृक् सन् कालसे कर्मबंधन से बद्ध होनेके कारण सदा मोह राग और द्वेषरूप अशुद्ध भावसे परिणमता रहता है। अतः इन भाषका निमित्त पाकर पुगल अपनी ही उपादान शक्तिसे आठ प्रकार कर्मरूप हो जाये हैं। और जैसे तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम या मन्द मन्दतर और मन्दतम परिणाम होते हैं उसीके अनुसार कर्मों में अनुभाग शक्ति पड़जाती है । अनुभाग शक्तिके तरतमांशकी उपमा चार विकल्पोंके द्वारा दी गई है। घातिया कर्मों में तो लतारूप, दारुरूप, अस्थिरूप और शैलरूप अनुभाग शक्ति होती है। अघातिया कमोंके दो भेद हैं-शुभ और अशुभ । शुभ कर्मों की अनुभाग शक्तिकी उपमा गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृतसे दी जाती है और अशुभ कर्मोकी अनुभाग शक्तिकी उपमा नीम, कंजीर, विष और हलाहल विषसे दी जाती है। जैसी अनुभाग शक्ति पड़ती है उसीके अनुरूप कर्म अपना फल देता है। हां तो, जीव और पुद्गल कर्म परस्परमें एक क्षेत्रावगाहरूप होकर आपस में बंध जाते हैं। कर्मका उदय काल आनेपर जब वे कर्म अपना फल देकर अलग होने लगते हैं तब निश्चयनयसे तो कर्म आमके सुखदुःख रूप परिणामों में और व्यवहारसे इष्ट अनिष्ट पदार्थोंकी प्राप्तिमें निमित्त होते हैं तथा जीव निश्चयसे तो कर्मके निमित्तसे होने वाले अपने सुखदुःखरूप परिणामों को भोगता है और व्यवहारसे दृष्ट अनिष्ट पदार्थोंको भोगता है, अतः जीव भोका भी है। उसमें भोगनेका गुण है ।। १८९ ॥ अर्थ- जब यह जीव अति तीव्र कषायरूप परिणमन करता है तब यही जीव पापरूप होता है और जब उपशमभावरूप परिणमन करता है तब यही जीव पुण्यरूप होता है | भावार्थ- सदा अतितीव अनन्तानुबन्धी कोध, मान, माया और लोभ कषाय तथा मिथ्यात्व आदि रूप परिणामोंसे युक्त हुआ जीव पापी है, और औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र तथा क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र रूप परिणामोंसे युक्त यही जीव पुण्यात्मा है । 'अपि' शब्दसे यही जीव जब अईन्त अथवा सिद्ध परमेष्ठी हो जाता है तो यह पुण्य और पाप दोनोंसे रहित होजाता है। गोम्मटसारमें पापी जीव पुण्यात्मा जीव, पाप और पुण्यका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है । 'जीविदरे कम्मचये पुण्णं पावो त्ति शेदि पुण्णं तु । सुह पयडीणं दव्यं पावं असुहाण दत्रं तु ॥ ६४३ ॥' अर्थात् जीव पदार्थका वर्णन करते हुए सामान्यसे गुणस्थानोंमेंसे मिध्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवर्ती जीव तो पापी है। मिश्रगुणस्थानवाले जीव पुण्यपापरूप है; क्योंकि उनके एकसाथ सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणाम होते हैं । तथा असंयत सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व सहित होनेसे, देशसंयत सम्यक्स्व और १ म स ग २ ससस जीवो वेद ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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