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________________ -२९५ ] १०. लोकानुप्रेक्षा १३१ पन्ना दक्षा निपुणाः, जिनाशाप्रतिपालका वा जीवदेहयोरात्मशरीरयोर्भेदं जानन्ति, जीवाच्छरीरं भिनं पमिति बागन्ति विदन्ति । पुनः कीदृक्षास्ते । निर्जितदुष्टाष्टमदाः । मदाः के 'ज्ञानं पूजा कुलं जातिर्बलमृद्धि पो वपुः इष्टो मा गर्दा अभिमानरूपाः, अष्ठी गदय अष्टमदःः ः म्याद निता दुष्टाष्टमदा रेस्ले तयोताः । ते त्रिविधाः त्रिप्रकारा अन्तरात्मानो भवन्ति जघन्य मध्यमोत्कृष्टमेात ॥१९४॥ अन्तरात्मनः सथि मेदान दर्शयति - पंच- महब्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठियां णिश्वं । णिजिय-सयल - पमाया उकिडा अंतरा होंति ॥ १९५ ॥ I [ बाबा-पण्डमहामतयुताः धर्मे शुक्रे अपि संस्थिताः नित्यम् । निर्जितसकल प्रनादाः उत्कृष्टाः अन्तराः भवन्ति ॥ ] होति भवन्ति । के उत्कृष्टा भन्तरात्मानः । कीदृक्षास्ते परमायुक्ताः हिंयामृत स्तेयाममचर्यपरिमनिवृत्तिलक्षणैः माहिताः । पुनः कथंभूतास्ते । नित्यं निरन्तर धर्मे शुक्रेऽपि संस्थिता, धर्मध्याने आज्ञापत्यविपाकसंस्थान I करते हैं। जो तीर्थरके द्वारा प्रतिपादित और गणधर देवके द्वारा गूंथे गये द्वादशाङ्ग रूप जिनवाणीमें दक्ष हैं, उसको जानते हैं अथवा जिन भगवानकी आज्ञा मानकर उसका आदर और आचरण करते हैं, और जीवसे शरीरको भिन्न जानते हैं। तथा जिन्होंने सम्यक्त्वमें दोष पैदा करनेवाले भाठ दुष्ट मदोंको जीत लिया है। वे आठ मद इस प्रकार हैं-ज्ञानका मद, आदर सत्कारका मद, कुलका मद, जातिका मद, ताकतका मद, ऐश्वर्यका मद, तपका मद और शरीरका मद । इन मदोंको जीतने वाले जीव अन्तरात्मा कहलाते हैं। उनके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन भेद हैं ॥ १९४ ॥ अब उत्कृष्ट अन्तरात्माका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- जो जीव पांच महाव्रतोंसे युक्त होते हैं, धर्म्यध्यान और शुध्यान में सदा स्थित होते हैं, तथा जो समस्त प्रमादोंको जीत लेते हैं वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा है । भावार्थ-जो हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच पापोंकी निवृत्तिरूप पांच महानतोंसे सहित होते हैं, आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विश्वय रूप दस प्रकारके धर्मध्यान और पृथवस्व वितर्क वीचार तथा एकत्व वितर्क वीचाररूप दो प्रकारके शुरूभ्यानमें सदा लीन रहते हैं । तथा जिन्होंने प्रमाद के १५ मेदोंको अथवा ८० भेदोंको या सैंतीस हजार पांच सौ मेदोंको जीत लिया है, ऐसे श्रप्रमत्त गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानतकके मुनि उत्कृष्ट अन्तरात्मा होते हैं। विशेष अर्थ इस प्रकार है । प्रमादवश अपने या दूसरोंके प्राणोंका घात करना हिंसा है। जिससे दूसरोंको कष्ट पहुंचे, ऐसे वचनका बोलना झूठ है । मिना दिये पराये तृणमात्रको भी लेना अपना उठाकर दूसरों को देना चोरी है । कामके वशीभूत होकर कामसेबम आदि करना मैथुन है। शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, धान्य आदि वस्तुओंमें ममत्व रखना परिग्रह है। ये पांच पाप हैं। इसका एकदेशसे त्याग करना अणुक्त है और पूरी तरहसे याग करना महाव्रत है । ध्यानका वर्णन आगे किया जायेगा। अच्छे कामोंमें आलस्य करनेका नाम प्रमाद है। प्रमाद १५ हैं४ विकथा अर्थात् खोटी कथा खीकथा- स्त्रियोंकी चर्चा वार्ता करते भोजनकथा - खानेपीनेकी चर्चा करते रहना, राष्ट्रकथा - देशकी चर्चावार्ता करते रहना और राजकथा- राजाकी चर्चा वार्ता रहना, १कस संठिया ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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