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________________ ८० सामिकाठिकेयानुप्रेक्षा [गा० १४३स्पर्शनरसनघ्राणरक्षुःश्रोत्रेन्द्रियकायबलायुःप्राणाः सप्त ७ भवन्ति, न तु भाषोक्तासमनःप्राणाः चित्र पर्याप्तिप्राणयोः को मेवः। आहारशरीरेन्द्रियान प्राणभाषामनोर्थपणशक्तिनिष्पत्तिरूपाः पर्याप्तयः, विषयप्रहणव्यापार व्यक्तिरूपाः प्राणाःति मेदो ज्ञातव्यः ॥ १४१॥ ननु प्रसनाध्यां साः सर्वति प्रश्ने, अथ विकलत्रयाणां स्थान नियम निर्दिशति वि-ति-चउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्म-भूमीसु। परिमे दीवे अद्धे चरम-समुहे वि सव्वेसु ॥ १४२॥ [छाया-वित्रिचतुरक्षाः जीवाः भवन्ति नियमेन कर्मभूमिषु ! चरमे ट्रीपे अर्धे चरमसमुदे अपि सर्वेषु ॥] द्वित्रिचतुरिन्दिया जीवाः प्राणिनः नियमतः वर्षातु कर्मभूमिघु पञ्चभरतपश्चराक्तपञ्चविदेहेषु पञ्चदशकर्मधरासु विकलत्रयासंज्ञिजीवा भवन्ति, नतु भोगभूम्यादिषु । अपि पुनः, चरम द्वीपे अर्धे खयंप्रमद्वीपे चरमे तस्या) खयप्रभपर्वतोऽस्ति मानुषोत्तरवत् । तस्य स्वयंप्रभस्य परतः अर्धद्वीपे चरमसमुद्रे स्वयंभूरभणसभुरे सर्वस्मिन् द्वित्रिचनीयाः पादः माजिद नाति एनालगत्र स्थानेषु ॥ १४२ ॥ अथ मानुषक्षेत्रबहिर्भागेषु तिरश्चामायुःकायादिनियमे निगपति माणुस-खिप्सस्स बहिं चरिमे दीवस्स अद्धयं जाँघ । सैब्यत्थे वि तिरिच्छा हिमवद-तिरिएहिँ सारिच्छा ॥ १४३ ॥ या-मानपत्र बहिः बरमे द्वीपस्य अधक यावत । सर्वत्र अपि लिय: हैमवततिर्यविभः सदृशाः! मनुष्यक्षेत्रस्य बहिर्भागे चरमे द्वीपस्य स्वयंप्रभद्वीपस्य यावत्, अद्वयं अर्धक, पुष्करद्वीपार्थस्थितमानुषोत्तरपर्वतात् अग्रे स्वयंप्रमद्वीपमध्यस्थितखयंप्रभाचलात भक्,ि सम्बत्थे वि सर्वत्रापि, अपरपुष्कररार्धद्वीपादिस्वयंप्रमद्वीपार्धपर्यन्तेषु इन्द्रिय, श्वासोच्छास, भाषा और मनरूप परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको पर्याप्ति कहते हैं। और पर्याप्तिके पूर्ण हो जानेपर इन्द्रिय वगैरहका विषयोंको ग्रहण करना आदिरूप अपने कार्यमें प्रवृत्ति करना प्राण है । इस तरह दोनोंमें कारण और कार्यका भेद है ॥ १४१ ॥ किसीने प्रश्न किया कि क्या अस नाडीमें सर्वत्र त्रस रहते हैं ! इसके समाधानके लिये प्रन्यकार विकलत्रय जीवोंके निवासस्थानको बतलाते हैं । अर्थ-दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव नियमसे कर्मभूमिमें ही होते हैं । तथा अन्तके आधे द्वीपमें और अन्तके सारे समुद्र में होते हैं ॥ भावार्थ-पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच विदेह, इन पन्द्रह कर्मभूमियोंमें विकलत्रय और असंशी पश्चेन्द्रिय जीव होते हैं, भोगभूमि वगैरहमें नहीं होते । तथा जैसे पुष्कर द्वीपके मध्यमें मानुषोत्तर पर्वत पड़ा हुआ है वैसे ही अन्तके स्वयंप्रभद्वीपके बीचमें स्वयंप्रम पर्वत पड़ा हुआ है। उसके • कारण द्वीपके दो भाग हो गये हैं। सो स्वयंप्रभ पर्वतके उस ओरके आधे द्वीपमें और पूरे स्वयंभूरमण समुद्र में दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव तथा 'अपि' शब्दसे असंज्ञी पश्चेन्द्रिय जीव होते हैं । इनके सिवा अन्य स्थानोंमें ये जीव नहीं होते ॥ १४२ ।। अब मनुष्यलोकसे बाहरके भागोंमें रहनेवाले तिर्यञ्चोंकी आयु और शरीर बगैरहका नियम कहते हैं। अर्थ-मनुष्यलोकसे बाहर अन्तके स्वयंप्रभ द्वीपके आधे भाग तक, सब द्वीपोंमें जो तिर्यश्च रहते हैं वे हैमवत क्षेत्रके तिर्यञ्चोंके समान होते हैं। भावार्थ-पुष्करद्वीपके आधे भागमें स्थित मानुषोत्तर पर्यनसे आगे और स्वयंप्रभ द्वीपके मध्यमें स्थित स्वयंप्रभ पर्दतसे पहले अर्थात् पश्चिम पुष्कराध द्वीपसे लेकर स्वयंप्रभद्वीपके आधे भाग तक असंख्यात द्वीपोंमें जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय थलचर और नभचर तिर्थश्च होते हैं वे हैमवत भोगभूमिके तिर्यश्चोंके ल चरिम । २ ग परमे। ३ व जाम। ४ ल स ग सब्बथि वि। ५ व हिमवदितिरिहि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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