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________________ १०. लोकानुप्रेक्षा असंख्यातद्वीपेषु, तिरछा तिर्यवः, पस्नेन्द्रियाः संशिनः स्थलबरनभश्वरा भवन्ति । हिमवदतिरिएहि हैमवतभोगभूमिजतिर्यग्भिः, सारिच्छा आयुःकायाहारयुम्मोत्पत्तिमुखादिभिः सहशा भवन्ति उत्सेधाः पल्यायुकाः । सौम्याः मृगादयः पक्षिणश्च स्युरिस्यर्थः ॥ १४३ ॥ अथ लवणाविसमुद्रेषु जलचरजीवभावाभावं प्ररूपपति लवणोए कालोए अंतिम-जलहिम्मि जलयरो संति । सेस-समुद्देसु पुणो ण जलयरा संति णियमेण ॥१४४ ।। [छाया-लवणो कालोदे अन्तिमजलधी जलचराः सन्ति । शेषसमुदेषु पुनः न जलचराः सन्ति नियमेन ॥] लवणोदके जलधी द्विलक्षयोजनप्रमाणसमुद्रे जल चराः द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजीवाः सन्ति । कालोदकसमुद्र भष्टलक्षयोजनप्रमाणे जलचरास्त्रमा विद्यन्ते। अन्तिमजलधी चरमाय भूरमगसमुद्रे असंख्यातयोजनप्रमाणे अलवराः द्वित्रिचतु:पधेन्द्रियपाणिनो भवन्ति । पुनः शेषसमुद्रेषु सर्वेषु असंख्यातप्रमितेषु नियमतः जल बराःद्वीन्द्रियादयो जीवा न सन्ति । ननु समुद्देषु जलखादः कोहक इति चेत्रैलोक्यसारगाथामाह । " लवर्ण वाहणतियमिदि काल दुर्गतिमसयंभुरमणमिदि । पोयजल स्सादा अवसेसा होति इच्छुरया ॥” इति ॥ १४४ ॥ अथ भवनवासिदेवादीनां स्थाननियम वक्ति खरभाय-पंकभाए भावण-देवाण होति भवणाणि । वितर-देवाण तहा दुण्हं पि य तिरिय-लोयमि ॥ १४५ ॥ [छाया-खरभागपडभागयोः भावनदेवानां भवन्ति भवनानि । व्यन्तरवेशानां तथा द्वयोरपि च तिर्यग्ले के 1] रमप्रभायां प्रथमपृथिव्यामेकलक्षाशीतिसहसयोजनबाहुल्यप्रमिलायां १८०००० प्रथमसरभागे षोडशसहस्रयोजनमाहुल्यै असुरकुलं विहाय नाग १ विद्युत् २ सुपर्ण ३ अग्नि ४ वात ५ स्तमित ६ उदधि ५ द्वीप ८ विक ५ समान होते हैं । अर्थात् उनकी आयु, शरीर, आहार, युगलरूपमें जन्म और सुख वगैरह जघन्य भोगभूमिके तिर्यञ्चोंके सदृश ही होते हैं । उन्हींके समान वहांके भृग आदि थलचर और पक्षी आदि नभचर तिर्यश्च सौम्य होते हैं, शरीरकी ऊंचाई भी उन्हीं के समान होती है और एक पल्पकी आयु होती है ॥ १४३ ।। अम लवण आदि समुद्रोंमें जलचर जीवोंके होने और न होनेका कथन करते हैं । अर्थ-लवणोद समुदमें, कालोद समुद्रों और अन्तके स्वयंभूरमण समुद्रमें जलचर जीव हैं । किन्तु शेष बीचके समुद्रोंमें नियमसे जलचर जीव नहीं हैं ।। भावार्थ-दो लाख योजन विस्तारवाले लत्रण समुद्र में और आठ लाख योजन विस्तारवाले कालोद समुदमें दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय जलचर जीव होते हैं । असंख्यात योजन' विस्तारवाले अन्तके स्वयंभूरमण समुद्रमें मी दो इन्द्रिय आदि जलचर जीव होते हैं। किन्तु बाकीके सब समुद्रोंमें जलचर जीव नियमसे नहीं होते । शङ्का-समुद्रोंके जलका स्वाद फैसा है ? समाधान-त्रैलोक्यसार नामक ग्रन्थमें कहा है कि लवण. समुद्रके जलका खाद नमककी तरह है । वारुणीवर समुद्के जलका खाद शराबके जैसा है, घृतवरसमुद्रके जलका खाद बीके जैसा है। क्षीरवर समुद्रके जलका खाद दूधके जैसा है | कालोद, पुष्करघर और स्वयंभूरमण समुद्रोंके जलका खाद जलके जैसा है, और शेष समुद्रोंका खाद गन्नेके रसके जैसा है ॥ १४४ ॥ अब भवनवासी आदि देवोंका निवासस्थान बतलाते हैं । अर्थ-खरभाग और पैकभागमें भवनवासी देवोंके भवन हैं और व्यन्तरोंके भी निवास है । तथा इन दोनोंके तिर्यग्लोकमें भी निवास स्थान हैं ॥ भावार्थ-रत्नप्रभा नामकी पहली पृधिवी एक लाख अस्सी हजार योजन अंतम । २ भर्तिक. ११ जलचरा। ३ग बितर ४ ल म स ग तिरियलोप लि।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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