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________________ १० खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १९यस्मते, रजन्या रात्रौ न सुप्यति न निद्रां विदधाति, स पुमान् विमोहितः मूढरवं गतः सन् करोति विदधाति । किम् । दासत्वं किंकरस्वम् । कस्याः । लक्ष्मीतरुण्याः रमारमायाः ॥ १७-१८ ॥ जो यड्डमाण-लच्छि अणवरयं देदि धम्म-कलेसु । सो पंडिऐहिं पुषदि तस्स वि सहला हवे लच्छी ॥ १९ ॥ [छाया-यः वर्धमानलक्ष्मीमनवरतं ददाति धर्मकार्येषु । स पवितैः स्तूयते तस्यापि सफल्म भवेत् समीः ॥] स पुमान् स्तूयते स्तवनविषयीक्रियते । कैः। पण्डितः पण्डाइनियेषां ते पण्डिततिः विद्वखनः, अपि पुनः, तस्य पुस: लक्ष्मीः सकला सार्थका भक्त् जायेत । तस्य कस्य । यः अनवर निरन्तरं देदि ददाति प्रयच्छति। काम् । वर्धमानलक्ष्मीम् उदीयमानरमाम् । केषु । धर्मकार्येषु धर्मस्य पुण्यस्य कार्यानि प्ररसादप्रतिमाप्रतिधायानाचतुर्विधदानपूजाप्रमुखानि सेषु ॥ १९ ॥ एवं जो जाणित्ता विलिय-लोयाण धम्म-जुसाणं । जिरवेक्खो तं देदि' हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥ २०॥ [छाया-एवं यःशास्वा विफलित लोकेभ्यः धर्मयुक्तभ्यः।निरपेक्षः तो ददाति खा तस्य भवेत् जीवित सफलम् ॥] तस्य पुसः जीवितं जीवितव्यं सफलं सार्थक भवेत् जायेत । तस्य कस्य । यः पुमान ददाति प्रयच्छति तां लक्ष्मी धनधान्यादिसंपदाम् । कीटक सन् । निरपेक्षः तरकृतोपकारचाम्छरहितः। केभ्यः । विफलितलोकेभ्यः निर्धनजनेभ्यः । कितेभ्यः। धर्मयुकेभ्यः सम्पवयसादिषयुकेभ्यः । किं कुरवा । एवं पूर्वोक्तानित्यवं शास्वा अवगम्य ॥२०॥ मालिकी नहीं लिखी ।।१७-१८॥ अर्थ-जो मनुष्य अपनी बढ़ती हुई लक्ष्मीको सर्वदा धर्मक कार्मोमें देता रहता है, उसकी लक्ष्मी सफल है और पण्डित जन भी उसकी प्रशंसा करते हैं । भावार्थ-पूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा और चार प्रकारका दान आदि शुभ कार्यों में लक्ष्मीका लगा सफल है । अतः धनवानोंको धर्म और समाजके उपयोगी कार्योंमें अपनी बढ़ती हुई लक्ष्मीको लगाना चाहिये ॥ १९ ॥ अर्थ-इस प्रकार लक्ष्मीको अनित्य जानकर जो उसे निर्धन धर्मात्मा व्यक्तियोंको देता है और बदलेमें उनसे किसी प्रत्युपकारकी वाञ्छा नहीं करता, उसीका जीवन सफल है ॥ भावार्थ-ग्रन्थकारने इस गाथाके द्वारा उस उत्कृष्ट दानकी चर्चा की है, जिसकी वर्तमानमें अधिक आवश्यकता है। हमारे बहुतसे साधर्मी भाई आज गरीबी और बेकारीसे पीड़ित हैं। किन्तु उनकी ओर कोई आँख उठाकर मी नहीं देखता । धनी लोग नामके लिये हजारों रुपये व्यर्थ खर्च करदेते हैं, पदवियोंकी लालसासे अधिकारियोंको प्रसन्न करनेके लिये पैसेको रानीकी तरह बहाते हैं । आवश्यकता न होनेपर भी, मान कषायके वशीभूत होकर नये नये मन्दिरों और जिनबिम्बोंका निर्माण कराते हैं । किन्तु अपने ही पड़ोसमें बसनेवाले गरीब साधर्मियोंके प्रति सहानुभूतिके चार शब्द कहते हुए भी उन्हें सङ्कोच होता है । जो उदार धनिक वात्सल्यभावसे प्रेरित होकर, किसी प्रकारके खार्थक विना अपने दीन-हीन साधी भाईयोंकी सहायता करते हैं, उनकी जीविकाका प्रबन्ध करते हैं, उनके बच्चोंकी शिक्षामें धन लगाते हैं, उनकी लड़कियोंके विवाहमें सहयोग देते हैं और कष्टमें उनकी बात पूछते हैं, उन्हींका जीवन सफल है ॥ २० ॥ १कम स देहि। २ रूग पंडिये हिं। ३ व श्वा । ४ म स ग देहि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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