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________________ -२०१] १०. लोकानुप्रेक्षा १३५ नाझे हये सति । अपि पुनः कर्मज भाषक्षये, कर्मजा भाषाः श्रदयिकक्षायोपशमिकोपशमिकाः रागद्वेषमोहादनो. मा तेषां क्षये निःशेषनाशे सति । सा परा उत्कृष्टध मा लक्ष्मीर्वाद्याभ्यन्तररूपा येषां ते परमात्मानो भवन्ति ॥ १९९ ॥ are यदि सर्वे जीवाः शुद्धखभावाः तेषां तपश्चरणविधानं निष्फलं भवतीति पूर्वपक्षं गाथाद्वयेन करोति जर पुर्ण सुद्ध-सहावा सव्वे जीवा अणाइ-काले वि तो' तव चरण-विहाणं सव्वेसिं णिष्फलं होदि ॥ २०० ॥ [ छाया-यदि पुनः शुद्धखभावाः सर्वे जीवाः अनादिकाळे अपि तत् तपश्चरणविधानं सर्वेषां निष्फलं भवति ॥ यदि चेत, पुनः सर्वे जीवाः अनादिकालेऽपि मनाद्यनन्तकालेऽपि शुद्धखभावाः कर्ममलकलङ्कराहित्येन शुद्धखमानाः बुटकी केवलज्ञानदर्शनस्वभावाः । तो तर्हि सर्वेषां जीवानां तपश्चरणं ध्यानाध्यवन दानादिकं परीषशेोपसर्गसहनं च तस्य विधानं निष्पादनं कर्तव्य निष्फलं न कार्यकारि भवति ॥ २०० ॥ किं चेति दूवणान्तरे ता कहें गिहदि देहं णाणा-कम्माणि ता कहं कुणदि । सुहिदा वियदुहिदा वि य णाणा-रुत्री कहं होंति ॥ २०९ ॥ [छाया-तत् कथं गृह्णाति देहं नानाकर्माणि तत् कथं करोति । सुखिताः अपि च दुःखिताः अपि च नानारूपाः कथं भवन्ति ॥ ] पुनः यदि सर्वे जीवाः सदा शुद्धख भाषाः, हा तर्हि, बेहम् औदारिकादिशरीरे सप्तधातुमूत्रादिम कथं हन्ति । जीवानां शुद्धखभावेन शरीरग्रहणायोगात् । यदि पुनः सर्वे जीवाः सदा कमककरूडरहिताः सा सहि नानाकर्माणि गमनागमनशयनभोजन स्थानादीनि अमिषिकृषिवाणिज्यादिकार्याणि ज्ञानावरणादीनि कर्माणि च कर्म शब्दका अर्थ है। सो घातिया कर्मोंको नष्ट करके अनन्त चतुष्टय रूप अन्तरंग लक्ष्मीको और समयसरण आदि रूप बाह्य लक्ष्मीको प्राप्त करनेवाले अरहन्त परमेष्ठी परमात्मा हैं । वे ही समस्त कर्मोको तथा कर्मसे उत्पन्न होनेवाले औदायिक आदि भावोंको नष्ट करके आत्म स्वभावरूप लक्ष्मीको पाकर सिद्ध परमात्मा हो जाते है ॥ १९९ ॥ कोई कोई मतावलम्बी आत्माको सर्वधा शुद्ध ही मानते हैं । दो गाथाओंसे उनका निराकरण करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि सब जीव शुद्धखभाव हैं तो उनका तपश्चरण आदि करना व्यर्थ है । अर्थ-यदि अनादिकालसे सब जीव शुद्धखभाव है तो सबका तपश्चरण करना निष्फल होता है । भावार्थ - यदि सब जीव सदा शुद्धस्वभाव हैं तो सब जीवोंका ध्यान, अध्ययन आदि करना, दान देना और परीषद उपसर्ग वगैरह सहना तथा उसका विधान करना कुछमी कार्यकारी नहीं होगा ॥ २०० ॥ और मी दूषण देते हैं । अर्थ-यदि जीव सर्वथा शुद्ध है तो वह शरीरको कैसे ग्रहण करता है ! अनेक प्रकारके कमों को कैसे करता है ? तथा कोई सुखी है, कोई दुःखी है इस तरह नाना रूप कैसे होता है ? || भावार्थ - यदि सब जीव सदा शुद्धस्वभाव ही हैं तो सप्तधातु और मलमूत्र आदिसे भरे औदारिक आदि शरीरको वे क्यों प्रहण करते हैं ! क्योंकि सब जीवोंके शुद्धस्वभाव होनेके कारण शरीरग्रहण करनेका योग नहीं है। तथा यदि सब जीव सदा कर्ममलरूपी कलङ्कसे रहित हैं तो जाना, आना, सोना, खाना, बैठना आदि, तथा तलवार चलाना, लेखन खेती व्यापार आदि कार्योंको और ज्ञानावरण आदि कर्मों को कैसे करते हैं तथा यदि सब जीव शुद्ध बुद्ध स्वभाववाले हैं तो कोई दुखी कोई सुखी, कोई जीवित कोई मृत, कोई अश्वारोही कोई घोड़े के आगे आगे चलने वाला, कोई बालक कोई वृद्ध, कोई पुरुष कोई भी, १ पुणु । २ से ३ व किंच ४ ल म सग हि । * व सुहिदा वि दुश्दा ६ वा रूवं (३) । ७ इंति, मग होति । ८ व सदो एवं भवति । सब्बे इदि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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