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स्वामिकाकियानुप्रेक्षा
[गा०२०२करोति केन प्रकारेण कुर्वन्ति । अपि पुनः, सर्वे जीवाः शुद्धबुदखभावाः, ता तर्हि फेचन सुखिताः क्षेचन दुःखिताः । नानारूपाः केचन मरणयुकाः केरन अश्वारोहा: केचनावाने गामिनः केचन बालाः केचन वृद्धाः केचन नराः केचन स्त्रीनपुंसकरूपाः केपन रोगपीखिताः केचन निरामया इत्यादयः कथं भवन्ति ॥ २०१॥ तदो एवं भवति, तत एवं वक्ष्यमाणगाथासूत्रोक्तं भवति
सब्वे कम्म-णिबद्धा संसरमाणा अणाइ-कालम्हि ।
पच्छा तोडिय बंधं सिद्धा सुद्धा धुंवं होति ॥ २०२॥ [छाया-सर्वे कर्मनियताः संसरमाणाः अनादिकाले। पश्चात् त्रोटयित्वा बन्ध सिद्धाः शुद्धाः ध्रुव भवन्ति ॥] अनादिकाले सबै संसारिणो जीवाः संसरमाणा चतुर्विषसंसारे पञ्चप्रकारसंसार था परिभ्रमन्तः च सुमणं कुर्वन्तः कर्मनिमदाः ज्ञानावरणादिवर्मनिवन्धनैः शृंखलाभिः बद्धाः बन्धन प्राप्ताः । पश्चात् कन्धं कर्मबन्ध प्रकृतिस्थित्यभागप्रदेशबन्ध तोडिय पोटयित्वा विनाश्य मिका स्ति कपनाला हिला हिला का शुद्धबुद्धैकखरूपाः । पुनः कीदृक्षाः । धुवाः नित्याः पावताः जन्मजरामरणविवर्जिताः अनन्तानन्तकालस्थायिनः ॥२०३ ॥ अथ येन बन्धन जीवा ईदृक्षा भवन्ति स को बन्ष इति चेदुच्यते -
जो अण्णोण्ण-पवेसो जीव-पएसाण कम्म-खंधाणं । सव्व-बंधाण विलओ सो बंधो होदि जीवस्स ॥ २०३ ।।
कोई नपुंसक, कोई रोगी कोई नीरोग इस तरहसे नानारूप क्यों हैं ? ऐसा होनेसेही आगेकी गाथामें कही हुई बात घटित होती है । २०१।। आगे कहते हैं कि यह सब तमी हो सकता है जब ऐसा माना जाये । अर्थ-सभी जीय अनादिकालसे काँसे बंधे हुए हैं इसीसे संसारमें भ्रमण करते हैं। पीछे कर्मबन्धनको तोड़कर जब निश्चल सिद्ध पद पाते हैं तब शुद्ध होते हैं । भावार्थ-अनादिकालसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चाररूप अथवा चारों गतियोंकी अपेक्षा चार रूप और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा पांचरूप संसार में भटकनेवाले सभी संसारी जीव ज्ञानावरण आदि कोंकी सांकलोंसे बंधे हुए हैं । पीछे प्रकृतिबन्ध स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धकी अपेक्षासे चार प्रकार के कर्म बन्धनको तोड़कर कर्ममलरूपी कलङ्कसे रहित सिद्ध हो जाते हैं । तब वे शुद बुद्ध स्वरूपवाले, और जन्म, बुढापा और मृत्युसे रहित होते हैं । तथा अनन्तानन्त काल तक वहीं बने रहते हैं। अर्थात् फिर वे कभी भी लौटकर संसारमें नहीं आते ॥ २०२॥ आगे जिसबन्धसे जीव बंधता है उस बंधका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जीवके प्रदेशोंका और कर्मके स्कन्धोंका परस्परमें प्रवेश होनाही जीवका बन्ध है। इस बन्धमें सब बन्धोंका बिलय हो जाता है । भावार्थ-जीवके लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशोंका और सिद्धराशिके अनन्तवें भाग अथवा अभव्यराशिसे अनन्तगुणी कार्मणवर्गणाओंका परस्परमें मिलना सो बन्ध है । अर्थात् एक आत्माके प्रदेशोंमें अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धोंके प्रवेशका नाम प्रदेश बन्ध है। इसीमें प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका लय होता है। कहा भी है.-"जीव राशि अनन्त है और एक एक जीवके असंख्यात प्रदेश होते हैं। तथा एक एक आत्मप्रदेशपर अनन्त कर्मप्रदेश होते हैं। आत्मा और कर्मके प्रदेशोंका
ग तदा। २ग पुस्तकयोरेपा गाथा नास्ति संस्कृतम्याश्या तु पर्वते। म मुबा सिया। पूर्व (१),म धुआ,सना। ५वको बंधी ।। जो अण्णोपण इत्यादि। ६मबलिद्ध।