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________________ -४८६] १२. धर्मानुप्रेक्षा मुहूर्तकालस्य अन्तिम विचरमसमये एकत्वं ध्यायति, एकत्वं वितर्कवीचाराख्यं वित्तीयं शुक्र ध्यायति चिन्तयति स्मरति तच्चानबलेन असंख्यातगुणश्रेणिक्रमनिर्जरां करोति । द्वितीय शुरुभ्यानबलेन उपान्तसमये निद्राप्रचलाद्वयं क्षपयति चरमसमये झानावरणीयपन ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणं चतुष्कं ४ दानलाभभोगोपभोगत्रीर्यान्तरायपश्चक ५ एवं चतुर्दशप्रकृतीः झपयति । शानदर्शनावरणीयान्तरायरूपघातित्रय द्वितीयाध्यानेन क्षपयतीत्यर्थः । कर्यभूतः क्षीणकषायः । निर्मन्थराद खवरूपे विलीनः खस्य आत्मन: सरूपे सुन्दबुद्धचिदानन्दशुद्धचिपे क्लिीनः लयं गतः, एकत्वं प्राप्त इत्यर्थः । तथा हि द्रव्यसंग्रहट्टीकायाम् , निजशुद्धात्मव्ये या निर्विकारात्मसुखसंवित्तिपर्याये वा निरुपराधिस्वसंवेदनगुणे का यत्रकस्मिन् प्रकृतं तत्रैव वितर्कसंखेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्रुतबलेन स्थिरीभूय वीचार द्रव्यगुणपर्यायपरावर्तनं करोति यत् तदेकत्ववितको वीचारसंझं क्षीणकपायगुणस्थानसंभव द्वितीयशुक्रभ्यानै भयंते । तेनैव केवलज्ञानोत्पतिरिति । तथा च ज्ञानार्गदे। 'अमृथक्त्वमवीचार सवितर्क च योगिनः । एकत्वमेक्योगस्य जायतेऽत्यन्तनिर्मलम् ॥ दुष्यं चैक गुणं चैकं पर्याय चैकमश्रमः । चिन्तयत्येकयोगेन यत्रैकत्वं तदुच्यते॥' तथा । 'एकं तव्यमथाणु वा पोर्य चिन्तयेयतिः। योगैकेन यदक्षीण तदेकत्वमुपीरितम् ॥ अस्मिंस्तु निश्चल यानहताशे प्रविजम्भिते। बिलीयन्ते क्षणादेव पतिकर्माणि योगिनः ।।' इति । इति द्वितीयशुक्रध्यानम् ॥ ४८५॥ केवल-णाण-सहावो सुहमे जोगम्हि संठिओ काए। जं झायदि सजोगि-जिणो तं तिदियं सुहुम-किरियं च ॥ ४८६ ॥ [छाया-केवलज्ञानस्वभावः सूक्ष्मे योगे संस्थितः काये । यत् ध्यायति सयोगिजिनः तत् तृतीयं सूक्ष्मक्रिय ।] सयोगिजिनः रायोगिकेवसिभट्टारकः अष्टमहाप्रातिहार्य ग तिशयसरवर दिनिमूनिमाविष्टः पालौगीकोइवीकरदेवः, स्खयोग्यगन्धकुव्यादिविभूतिविराजमान इतरकेवली वा उत्कृष्टेन वेशोनपूर्वकोटिकाले विहरति सयोगिमट्टारकः। स यदा मुनि क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती होता है । कषायोंके क्षीण होजानेसे वही सच्चा निर्धन्य होता है । उसका अन्तरंग स्फटिकमणिके पात्रमें रखे हुए स्वच्छ जलके समान विशुद्ध होता है । क्षीणकषाय गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है । उसके उपान्त्य समयमें मुनि एकत्व विर्क नामक दूसरे शुक्ल ध्यानको ध्याता है । उस ध्यानके बलसे उसके प्रतिसमय असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी कनिर्जरा होती है । उसीके बलसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक तीन घातिकमोका विनाश होता है । द्रव्यसंग्रहकी टीका में एकत्व वितर्क शुक्लथ्यानका वर्णन करते हुए लिखा है'अपने शुद्ध आत्मद्रव्यमें अथवा निर्विकार आत्मसुखानुभूतिरूप पर्यायमें अथवा उपाधिरहित खसंवेदन गुणमें प्रवृत्त हुआ और खसंवेदनलक्षणरूप भावश्रुतके बलसे, जिसका नाम वितर्क है, स्थिर हुआ जो ध्यान वीचारसे रहित होता है उसे एकत्र वितर्क अवीचार कहते हैं। इसी ध्यानसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है। ज्ञानार्णव में भी कहा है-'किसी एक योगवाले मुनिके पृथक्व रहित, वीचार रहित किन्तु वितर्क सहित अत्यन्त निर्मल एकत्व वितर्क नामक शुक्लध्यान होता है | जिस ध्यानमें योगी बिना किसी खेदके एक योगसे एक द्रव्यका अथवा एक अणुका अथवा एक पर्यायका चिन्तन करता है उसको एकत्व वितर्क शुक्लध्यान कहते हैं । इस अत्यन्त निर्मल एकत्व वितर्क शुक्कभ्यान रूपी अग्निके प्रकट होने पर ध्यानीके घातियाकर्म क्षणमात्रमें विलीन हो जाते हैं ॥' इस प्रकार दूसरे शुकध्यानका वर्णन समाप्त हुआ ।। ४८५।। अर्थ-केवलझानी सयोगिजिन सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर जो ध्यान करते हैं वह सूक्ष्मक्रिय नामक सीसरा शुक्ल ध्यान है ।। भावार्थ-आठ महाप्रातिहार्य १वसुइमे योगम्मि । २ म स सदिय (१)। .
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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