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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० ४८६
अन्तर्मुहूर्तशेषायुष्कः तदा तत् प्रसिद्धं तृतीयं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपात्यभिधानं ध्यानं ध्यायति स्मरति । तत् किम् । यत् केवलज्ञानस्वभावः केवलज्ञानं केवलबोधः तदेव स्वभावः स्वरूपं यस्य स तयोः । केवलज्ञानम्वर्ण वा प्राकृते विनमेदो नास्तीति । च पुनः । कथंभूतः सूक्ष्मे योगे काये संस्थितः कामयोगे सम्यक्प्रकारेण स्थिति प्राप्तः । औदारिकशरीरयोगे की सूक्ष्मे । पूर्वस्पर्धका पूर्व स्प का दरकृष्टि करणानन्तरं सूक्ष्मकृष्टिकर्तव्यतां प्रसे बादरकाययोगे स्थित्वा कमेण बादर मनोवचनच्छ्रा निःश्वासं बारकाययोगे च निरुध्यतमः सूक्ष्मकाययोगे स्थित्वा क्रमेण सूक्ष्ममनोवचनोवासनिःश्वासं निरुध्य सूक्ष्मकागयोगः स्यात् । स एन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिश्यानं भवतीत्यर्थः । तथा ज्ञानार्णवे चोकम् | 'मोहेन सह दुर्ध हृते पातिचतुग्र्ये । देवस्य व्यक्तिरूपेण शेषमास्ते चतुष्टयम् ॥ राज्ञः क्षीणकर्मासौ केवलज्ञानभास्करः । अन्तर्मुहूर्तशेषायुस्तृतीयं ध्यानमर्हति ॥' 'शेषे षण्मासाषि संवृत्ता ये जिन प्रान्ति समुद्धार्त शेषा भाज्याः समुद्धा ते ' 'यदायुरधिकानि स्युः कर्माणि परमेष्ठिनः । समुद्धतिविधि साक्षात प्रात्रारभते तदा ॥' 'अनन्तवीर्यः प्रथितप्रभावो दण्डं कपाटं प्रतरं विधाय । म लोकमेनं समचतुर्भिः निःशेषमापूरयति क्रमेण ॥ तदा सर्वगः सार्वः सर्वज्ञः
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चौतीस अतिशय और समवसरण आदि विभूतिले शोभित तथा परमऔदारिक शरीरमें स्थित तीर्थकर देव अथवा अपने योग्य गन्धकुटी आदि विभूतिसे शोभित सामान्य केवली अधिक से अधिक कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक विहार करते हैं। जब उनकी आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है तब वे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरे शुरू ध्यानको ध्यते है । इसके लिये पहले वह बादर काययोग में स्थित होकर बादर बचन योग और बादर मनोयोगको सूक्ष्म करते हैं । फिर वचनयोग और मनोयोग में स्थित होकर बादर काययोगको सूक्ष्म करते हैं । उसके पश्चात् सूक्ष्मकाय योग में स्थित होकर वचन योग और मनोयोगका निरोध कर देते हैं। तब यह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को ध्याते हैं || ज्ञानार्णवमें लिखा है- मोहनीयकर्मके साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार दुर्धर्ष घातिया कर्मोंका नाश होजाने पर केवली भगवानके चार अघातिकर्म शेष रहते हैं || कर्मरहित और केवलज्ञान रूपी सूर्यसे पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले उस सर्वज्ञकी आयु जन अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है तब वह तीसरे शुध्यानके योग्य होते हैं | जो अधिक से अधिक छः महीने की आयु शेष रहने पर केवली होते हैं वे अवश्य ही समुद्रात करते हैं । और जो छः महीने से अधिक आयु रहते हुए केवली होते हैं उनका कोई नियम नहीं हैं वे समुद्धात करें और न भी करें। अतः जब अरहंत परमेष्टीके आयुकर्म की स्थितिसे शेष कर्मों की स्थिति अधिक होती है तब वे प्रथम समुद्रातकी विधि आरम्भ करते हैं । अनन्तवीर्यके धारी वे केवली भगवान् क्रमसे तीन समयोंमें दण्ड, कपाट और प्रतरको करके चौथे समय में लोकपूरण करते हैं । अर्थात् मूल शरीरको न छोड़कर आत्मा के प्रदेशोंके बाहर निकलनेको समुद्धात कहते हैं । सो केवली समुद्रातमें आत्मा के प्रदेश प्रथम समयमें दण्डाकार लम्बे, दूसरे समय में कपाटाकार चौड़े और तीसरे समय में प्रतररूप तिकोने होते हैं और चौथे समय में समस्त लोकमें मर जाते हैं । सब सर्वगत, सार्व, सर्वज्ञ, सर्वतोमुख, विश्वव्यापी, विभु, भर्ता, विश्वमूर्ति और महेश्वर इन सार्थक नामोंका धारी केवली लोकपूरण करके ध्यानके बलसे तत्क्षण ही कर्मोंको भोग में लाकर वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति आयुकर्मके समान कर लेता है । इसके बाद वह उसी क्रमसे चार समयोंमें लोकपूरण से पूरणसे प्रतर कपाट और दण्डरूप होकर चौथे समय आत्मप्रदेश शरीरके
लौटता है। अर्थात् लोक
प्रमाण हो जाते हैं ॥
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