SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दोन not ranANA स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा नरकगतिप्रायोम्यानुपूर्वी १ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी 1 आतपोद्योतस्थावर सूक्ष्म १ साधारण १ नामिकाना षोडशाना कर्मप्रकृतीनां पृथक्त्ववितर्कचीचारशुक्रध्यानबलेन प्रक्षय नयति । द्वितीयभागे अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानन्यायाष्टक ८ प्रथमशुक्रध्यानपरिणतः क्षय नयति । तृतीयभागे तद्गुलेन नपुंसकवेदं क्षपयति । चतुर्थ भागे तसेन स्त्रीवेदै क्षफ्यति । पचमे भागे तबलेन मोकषायपक्षपयति ६ । षष्ट भागे तरलेन पुवेदं क्षफ्यति ५ । सप्तमे भागे तद्वलन संज्वलगको क्षपयति ११ अष्टमे भागे तबलेन संज्वलनमायां क्षपयति । एवं पत्रिंशत्प्रकृतीः ३६ अनिवृत्तिकरणक्षपकोण्यारूढः क्षपकः पृथक्त्ववितर्कवीचारशुकभ्यानबलेन क्षपयतीत्यर्थः । ततः सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानक्षपकोण्यारवः क्षपको भूत्वा सोऽपि सूक्ष्मसापरायात्मनः चरमसमये किट्टिकागतं सर्वलोभसंज्वलन प्रथमं शुक्रध्यानयलेन क्षपयति । ततो अनन्तर क्षीणकषायः क्षपको भवति । सोऽपि क्षीणकषायक्षपकनेण्यारूढः अन्तर्मुहूर्त गमयिला आत्मनो विचरमसमये एकत्ववितर्कावीचारद्वितीय शक्कभ्यानबलेन निद्राप्रबलासंझके द्वे प्रकृती क्षपयति । ततो अनन्तरं चरमसमये एकत्वषितर्कवीचारध्यानपरिणतः क्षपकः पञ्चज्ञानावरणचतुर्दर्शनावरणपश्चान्तरायाख्याश्चतुर्दशप्रकृतीः १४ क्षपयति । क्षीणकषायक्षपकः द्वितीयाक ध्यानपरिणतः सन् षोडशप्रकवीः क्षपयतीत्यर्थः । षष्टिकर्मप्रकृतिषु क्षीणेषु सयोगिजिनो भवति ॥ ४८४ ॥ णीसेस-मोह-विलाहीय-कार, य मंशिक मारे । स-सस्वम्मि' णिलीणो सुकं झापदि एयत्तं ॥ ४८५॥ [छाया-निःशेषमोइषिलये क्षीणकषाये च अन्तिमे काले । स्वस्वरूपे निलीनः राई ध्यायति एकत्वम् ।।] निःशेषमोहविलये सति निःशेषस्य समग्रस्य मिथ्यात्वत्रयानन्तानुबन्ध्यादिषोडशकषायहास्यादिनवनोकवायस्य अष्टाविंशतिभेदमिनस्य मोहनीयकर्मणः विलये नष्ट क्षीणे सति, क्षीणकषायः क्षीणा: क्षयं नीताः कषायाः सर्वे यस्य येन धा सुक्षीगणवायः क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती संयतः परमार्थतो निप्रेन्यः स्फटिकभाजनगतप्रसन्नतोयसमविशुद्धान्तरजः अन्तिमकाले खकीयान्त वेदका क्षय करता है । चौथे भागमें स्त्रीवेदका क्षय करता है । पाँचवे भागमें छः नोकषायोंका क्षय करता है । छठे भागमें पुरुषवेदका क्षय करता है । सातवें भागमें संज्वलन क्रोधका क्षय करता है । आठवें भागमें संज्वलन मानका क्षय करता है । नौवें मागमें संज्वलन मायाका क्षपण करता है । इस तरह क्षपक अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें पृथक्व वितर्क 'वीचार शुक्लध्यानके बलसे छत्तीस कर्म प्रकृतियोंका क्षय करता है । उसके बाद क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें जाकर प्रथम शुक्लथ्यानके बलसे उसके अन्तिम समयमें समत लोभ संज्वलनका क्षय कर देता है। उसके बाद क्षपक क्षीणकषाय गुणस्थानवी होता है। वहाँ अन्तर्मुहुर्त काल बिताकर क्षीणकषाय गुणस्थानके उपान्त्य समयमें एकत्ववितर्क नामक दूसरे शुक्लथ्यानके बलसे निद्रा और प्रचलाका क्षय करता है । और अन्तिम समयमें पाँच बानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय इस प्रकार चौदह प्रकृतियोंका क्षय करता है । इस तरह दूसरे शुकच्यानसे सोलह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है। ७+३६+१+१६-६० प्रकृतियोंका क्षय होने पर बह सयोग केवली जिन हो जाता है ॥ १८४ ॥ अर्थ-समस्त मोहनीय कर्मका नाश होनेपर क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिमकालमें अपने स्वरूपमें लीन हुआ आत्मा एकत्व वितर्क नामक दूसरे शुक्ल यानको ध्याता है ॥ भावार्थ-मोहनीय कर्मकी मिथ्याव आदि तीन, अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषाय और हास्य आदि नौ नोकषाय, इन अठाईस प्रकृतियोंका नाश हो जाने पर १कमसमणिरसेस बिलये। २ छग म कसाओ (उ), कसाई। स सरूवादि। ४ कगायेति ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy