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________________ १५२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २१९कारणभाव सपकारो भवति । वा यथा शीतकाले पठता पुंसाम् अध्ययने ममिः सहकारिकारणत्वेन उपकारः। तथा प जीवानां पहला शरीरवचनमनःश्वासोच्छासमुखदुःखजीवितमरणपुत्रमित्र कलादिगृहहहाविकसहकारिकारणरूपेण सपकार करोति । जीवानां पुद्गलानां च गमनघतो गतेः निमित्तप्तहकारिकारणत्वेन उपकारः। स्थितिवता जीवपुद्गलानां स्थिः पानिमित्तसहवारिकारणभावेन उपकारः । अवकाशदाने आकापस्य सर्वेषां द्रव्याणां सहकारिकारणत्वेन उपकारः। जीवपुराना नवजीर्णतोत्सादने सहकारिकारणस्वेन कालस्योपकारः । यथाकाशद्रव्यम् अशेषड्व्याणामाधारः खस्थापि, तथा कालद्रयं परेषां द्रव्याणां परिणतिपर्यायत्वेन सहकारिकारण खस्यापि यथा इन्धनानिसहकारिकारणोत्पलस्यौवनपर्यायस तम्बुलोपादानकारणम्, कुम्भकारचकनीवरादिवाकारणोत्पन्नस्य मृत्पिडपटपर्यायस्य मृत्पिण्डोपादानकारणवत् ॥ २१८॥ अथ द्रव्याणां स्वभावभूती नानाशफि कोऽपि निषेद्ध न शकोतीस्यावेदयति कालाइ-लाद्धे-जुत्ता णाणा-सत्तीहि संजुदा अस्था । परिणममाणा हि सयं ण सकदे को वि वारेदु ॥२१९ ॥ [छाया-काला दिलब्धियुक्ताः नानाशक्तिभिः संयुता अर्थाः । परिणममानाः हि वयं न शोति कः अपि वारयितुम् ॥] अर्थाः जीवादिपदार्थाः, हीति स्फुटम् , खयमेव परिणममाणा परिणमन्तः पर्यायान्तरं गच्छन्तः सन्तः करपि इन्द्रधरणेन्द्रन्यक्रवादिभिः वारयितुं न शक्यन्ते। कीपक्षास्तेाःकालादिलब्धियुक्ताः कालव्यक्षेत्रभवभावादिसामग्रीमाप्ताः । पुनरपि कीरक्षास्ते अर्थाः। नानाशक्तिभिः, अनेकसमर्थताभिः नानापकारखभावयुक्ताभिः संयकाः। यथा जीवाः भव्यत्वादिशक्तियुक्ताः रक्षप्रयादिकाललब्धि प्राप्य निर्वान्ति, यथा तण्डुलाः मोदनशक्तियुकाः इन्धनाप्रिस्थालीजलादिसामग्री प्राप्य भकपरिणाम लभन्ते । तत्र मतपर्यायं तण्डुलानामभयकारणे सति कोऽपि निषेद्रं न शकोतीति भावः ॥ २१६ ॥ अथ व्यवहारकालं निरूपयति जीवाण पुग्गलाणं जे सुहमा बादरों य पज्जाया। , तीदाणागद-भूदा सो वयहारो हवे कालो ॥ २२० ॥ की गतिमें सहायक धर्म द्रव्य होता है, और ठहरनेमें सहायक अधर्म द्रव्य होता है। सब द्रव्योंको अवकाशदान देनेमें सहायक आकाश द्रव्य होता है, परिणमनमें सहायक काल द्रव्य होता है । ये सब द्रव्य अपना अपना उपकार सहकारि कारणके रूपमें ही करते हैं । तथा जैसे आकाशद्रव्य सब द्रव्योंका आधार है और अपना भी आधार है वैसेही काल द्रव्य अन्य द्रव्योंके परिणमनमें भी सहकारी कारण है और अपने परिणमनमें मी सहकारी कारण है । तथा जैसे अग्निकी सहायतासे उत्पन्न हुई भात पर्यायका उपादान कारण चावल है और कुम्हारकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाली घट पर्यायका उपादान कारण मिट्टी है वैसे ही प्रत्येक द्रव्य अपनी अपनी पर्यायका उपादान कारण होता है ।। २१८ ॥ आगे कहते हैं कि द्रव्योंकी खभावभूत जो नाना शक्तियाँ हैं उनका निषेध कौन कर सकता है ? अर्थ-काल आदि लैब्धियोंसे युक्त तथा नाना शक्तियोंवाले पदार्थोको स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है?|| भावार्थ-सभी पदार्थोंमें नाना शक्तियाँ हैं । वे पदार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, और भवरूप सामपीके प्राप्त होनेपर स्वयं परिणमन करते है उन्हें उससे कोई नहीं रोक सकता । जैसे, भल्पख आदि शक्तिसे युक्त जीव काललब्धिके प्राप्त होनेपर मुक्त हो जाते हैं । भातरूप होनेकी शक्लिसे युक्त चावल, ईधन, आग, बटलोही, जल आदि सामग्रीके मिलनेपर भातरूप होजाते हैं । ऐसी स्थितिमें जीवको मुक्त होनेसे और चावलोंको भातरूप होनेसे कौन रोक सकता है ।। २१९ ।। आगे व्यवहार रग सवीर संपदा। म स्या। ३१ वाया।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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