SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -२१८] १०. लोकानुप्रेक्षा सय सोण य परिणामेइ यामण्णेहिं । विविहपरिणामिमाण हपदि हु कालो सयं हेतु ॥" स कालः संक्रमविधानेन खगुणैर्नान्यद्रव्ये परिणमति, न च परद्रव्यगुणान् स्वस्मिन् परिणामयति, नापि हेतुकतृत्वेनान्यद्रव्यमन्यगुणः सह परिणामयति । कि तर्हि विविधपरिणामिका व्याण परिणमनस्य स्वयमुदासीन निमितं भवति । यथा कालद्रव्यं तथा सर्व मावि इति हिरवं गिरितलि बियाणेह, अन्यदपि वाघम्यं बहिरद्रव्यं निमित्तमात्र निमित्तहेतुकं जानीहि त्वम्, हे महानुभाव इति । यथा एकमृत्तिकाद्रव्यं घटघटीशरावोदबनादीनां पर्यायानामुपादानकारण कुम्भकारचक्रचीवरदण्डदोरकजलादिबहिरङ्गनिमित्तकारण च भवति । अथवा इन्धनानिसहकारिकारणोत्पमस्यौदनपर्यायस्य तण्डलोपादानं कारणं यथा । अथवा नरनारकादिजीवपर्यायस्य जीवोपादानकारणवत् । तथा द्रव्यमपि खखपर्यायाणामुत्पादने उपादानकारणम्, अन्याव्यक्षेत्रकासादिक निमितकारणं च ज्ञातव्यम् । यथा च लोहपातरः सुवर्णशजियुताः सन्तो रसोपविद्धाः सन्तः सुवर्णतां यान्ति । तथा सर्वाण्यपि द्रव्याणि स्वकीयपरिणामयुक्तान्यपि कालादिसहकारिद्रय्यप्रेरितानि नखपर्यायान् जनयन्ति उत्पादयन्तीत्यर्थः ॥ २१७॥ अथ सर्वेषां द्रव्याणां परस्परमुपकारः, सोऽपि सहकारिभावन कारणभावं लभते इसाबेदयति सवाणं दवाणं जो उवयारो हवेइ अण्णोणं । सो चिय कारण-भावो हवदि हु सहयारि-भावेण ॥ २१८ ।। [छाया-सर्वेषां द्रव्याणां यः उपकारः भवति अन्योन्यम् । स एव कारणभायः भवति खलु सहकारिभावेन ॥] सर्वेषां द्रव्याणां जीवपुद्गलादीनाम् अन्योन्यं परस्परं यः उपकारो भवति । हुइति स्फुटम् । सो चिय स एव उपकार: सहकारिकारणभावेन निमित्तकारणभावेन कारणभावो भवति कारणं जायते इत्यर्थः । यथा गुरुः शिष्यादीनां विद्यादिपाठनेनोपकार करोति, शिष्यस्तु गुरोः पादमदनादिकमुपकार करोति स उपकारः शिम्यादीनां शाखाद्यभ्ययनशक्ति. युकानां गुरुकृतविद्याथध्यापनायुपकरणं सहकारिकारणतां लभते । यथा कुम्भकारचक्रस्माघस्तनशिला सहकारिकारणत्वन कारण और एक निमित्तकारण । जो कारण स्वयं ही कार्यरूप परिणमन करता है वह उपादान कारण होता है जैसे संसारी जीव स्वयं ही क्रोध, मान, माया, लोभ या राग द्वेष आदि रूप परिणमन करता है अतः वह उपादान कारण है । और जो उसमें सहायक होता है वह निमित्तकारण होता है । सब इयोंमें परिणमन करनेकी खाभाविक शक्ति है । अतः अपनी अपनी पर्यायके उपादान कारण तो स्वयं द्रव्यही हैं । किन्तु काल द्रव्य उसमें सहायक होनेसे निमित्त मात्र होता है । जैसे कुम्हारके चाकमें घूमनेकी शक्ति खयं होती है, किन्तु चाक कीलका आश्रय पाकर ही घूमता है । इसीसे गोमटसार जीवकाण्डमें काल द्रव्यका वर्णन करते हुए कहा है-'वह काल द्रव्य स्वयं अन्य द्रव्यरूप एरिणमन नहीं करता और न अन्य द्रव्योंको अपने रूप परिणमाता है। किन्तु जो द्रव्य स्वयं परिणमन करते हैं उनके परिणमनमें वह उदासीन निमित्त होता है ॥ २१७ ॥ आगे कहते हैं कि समी द्रव्य परस्परमें जो उपकार करते हैं वह भी सहकारी कारणके रूपही करते हैं। अर्थ-समी द्रव्य परस्परमें जो उपकार करते हैं वह सहकारी कारणके रूपमें ही करते हैं ।। भावार्थ-ऊपर बतलाया है कि समी द्रव्य परस्परमें एक दूसरेका उपकार करते हैं । सो यह उपकारभी वे निमित्त कारणके रूपमें ही करते हैं । जैसे गुरु शिष्योंको विपाध्ययन कराता है । यहाँ विद्याध्ययनकी शक्ति तो शिष्योंमें है। गुरु उसमें केवल निमित्त होता है । इसी तरह शीतकाल में विद्याध्ययन करनेमें अग्नि सहायक होती है, कुम्हारके चाकको घूमनेमें कील सहायक होती है । पुगल, शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छास, सुख, दुःख, जीवन, मरण, पुत्र, मित्र, जी, मकान, हवेली आदिके रूपमें जीवका उपकार करता है, ममन करते हुए जीव और पुगलों
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy