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________________ १५० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २१७ राशिवत् भिन्नभिन एवं । तथाहि षद्रव्याणां वर्तनाकारणं वर्तयिता प्रवर्तन लक्षणमुख्य कालः । वर्तनागुणो द्रष्यनिचये एव । तथा सति काला रेणेव सर्वद्रव्याणि वर्तन्ते स्वस्वपर्यांयैः परिणमन्ति । ननु कालस्यैव परिणामक्रिया परत्यापरत्वोपकारो जीवपुद्गल्योः दृश्यते । धर्मायमूर्तश्च्येषु कथमिति चेदुक्तं च । " घम्साघम्मावगं अगुरुलहूगं तु हिं विनीहि । हाणीहिं विवद्युतो हायंतो वट्टदे जम्हा ॥" यतः धर्माधर्मादीना मगुरुलघुगुणाविभागप्रतिच्छेदाः स्वद्रव्यत्वस्य निमित्तभूतशक्तिविशेषाः षड्वृद्धिभिर्वर्धमामाः षड्द्दानिभिव हीयमानाः परिणमन्ति । ततः कारणात् तत्रापि का इति । तथा च "लोगागासपदेसे एक्के जे ढिया हु एकेका । रयणाणं रासी इव ते काला मुणेयव्वा ! " एकैक लोकाकाशप्रदेशे ये एकैके भूत्वा रत्नानां राशिरिव भिमभिव्यत्तया तिष्ठन्ति वे कालावो मन्तव्या । धर्माधर्माकाशा एकैक एव अखण्डद्रव्यत्वात् । कालाणयो लोकप्रदेशमात्रा इति ॥ २१६ ॥ यथा कालानां परिणमनशतिरस्ति तथा सर्वेषां द्रव्याणां स्वभावभूता परिणामश तिरस्ती त्यावेदयति णिय-जिय- परिणामाणं नियणिय-दब्वं पि कारणं होदि । अणं बाहिर-दन्वं णिमित मित्तं वियाणेहे ॥ २१७ ॥ [छाया-निजनिजपरिणामानां निजनिजद्रव्यम् अपि कारणं भवति । अन्यत् बाह्यद्रव्यं निमित्तमात्रं विजानीत ॥ ] निज निजपरिणामानां स्वकीयस्वकीय पर्यायाणां जीवानां क्रोधमानमाया लोभरागद्वेषादिपर्यायाणां नरनारका दिपर्यायाणां च पुगलानाम् मदारिकादिशरीरादीनां अणुकच्यणुकादिस्कन्धपर्यन्तानां परिणामानां पर्यायाणां च । निजनिजद्रव्यमपि न केवलं कालद्रव्यम् इत्यपिशब्दार्थः कारणं हेतुर्भवति, उपादानकारणं स्यात् । उक्तं च । "णय परिणमदि होती है एक स्वभाव पर्याय और एक विभावपर्याय। बिना पर निमित्तके जो स्वतः पर्याय होती है उसे भावपर्याय कहते हैं । जैसे जीवकी स्वभावपर्याय अनन्तचतुष्टय वगैरह और पुद्गलकी स्वभावपर्याय रूप, रस गन्ध वगैरह । स्वभावपर्याय समी द्रव्योंमें होती है । किन्तु विभाव पर्याय जीव और पुद्गल द्रव्यमें ही होती है क्योंकि निमित्त मिलनेपर इन दोनों द्रव्यों में विभावरूप परिणमन होता है । क्रोध, मान, माया और लोभ वगैरह तथा नर, नारक, तिर्यश्व, और देव वगैरह जीवकी विभात्रपर्याय हैं और द्वषणुक त्र्यणुक आदि स्कन्धरूप पुगलकी विभात्रपर्याय है । इन पर्यायोंके होने में जो सहकारी कारण है वह निश्चयकाल है । आशय यह है कि सब द्रव्योंमें वर्तना नामक गुण पाया जाता है किन्तु काल द्रव्यका आधार पाकर ही सब द्रव्य अपनी अपनी पर्यायरूप परिणमन करते हैं । शंका-काल द्रव्यके परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि उपकार जीव और पुद्रलमें ही देखे जाते हैं । धर्म आदि अमूर्त द्रव्योंमें ये उपकार कैसे होते हैं ? समाधान-धर्म आदि अमूर्त द्रव्योंमें अगुरुलघु नामक जो गुण पाये जाते हैं इन गुणोंके अविभागी प्रतिच्छेदोंमें छः प्रकार की हानि और छ प्रकार की वृद्धि होती रहती है। उसमें भी निश्चयकाल ही कारण है । अतः सब द्रव्योंमें होनेवाले परिणमन में जो सहायक है वही निश्चयकाल है । वह निश्चयकाल अणुरूप है और उसकी संख्या असंख्यात है; क्योंकि लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर एक एक कालाणु रत्नोंकी राशिकी तरह अलग अलग स्थित है । सारांश यह है कि धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य तो एक एक ही है, किन्तु कालद्रव्य लोकाकाशके प्रदेशोंकी संख्याके बराबर असंख्यात है ॥ २१६ ॥ आगे कहते हैं कि सभी द्रव्योंमें स्वभावसे ही परिणमन करनेकी शक्ति है । अर्थ- अपने अपने परिणामोंका उपादान कारण अपना द्रव्य ही होता है । अन्य जो बाह्य द्रव्य है वह तो निमित्त मात्र है | भावार्थ - कारण दो प्रकारका होता है एक उपशदान १म मिमि मत्तं (१) । २ न बियाणेहि (१) ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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