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१२. धर्मानुप्रेक्षा
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केवलिनः स्यात् । धर्मध्यानं अप्रमत्तसंयतस्य साक्षाद्भवति । अमिरतसम्यग्दृष्टिदेशविरसप्रमत्तसंयतानः तु गोणत्या धर्म ध्यान वेदितव्यमिति । 'परे मोक्षहेतू' परे धर्मशुक्रे द्वे ध्याने मोक्षहेतू मोक्षस्य परमनिर्वाणस्य हेतू कारणे भवतः । तत्र धर्म्यं ध्यानं पारंपर्येग मोक्षस्य कारणम्, शुक्रभ्याने तु साक्षात मोक्षकारणमुपशमश्रेण्यपेक्षया तु तृतीये भवे मोक्षदायकम् । भार्तरी द्वे ध्याने संसारहेतुकारणे भवतः इति ॥ ४७२ ॥ अथ गाथाद्वयेन चतुर्विधमार्तध्यानं
चित्रणोति
निक ही वर्णन है। किया है चौधर चकार संग्रहण
दुक्खयर - विसय जोए केम इमं चयदि' इदि विचिंततो । चेदि' जो विक्खितो अट्ट झाणं' हवे तस्स ॥ ४७३ ॥ महर - विसय-विओगे" कह तं पावेमि इदि वियप्पो जो । संतावेण पयट्टो सो विय अहं वे शाणं ॥ ४७४ ॥
[ छाया - दुःखकरविषययोगे कथम् इमे व्यजति इति विचिन्तयन् । चेष्टते यः विक्षिप्तः भर्तध्यान भक्त तस्य ॥ मनोहर विषय वियोगे कथं तत् प्राप्नोमि इति विकल्पः यः । संतापेन प्रवृत्तः तत् एष आर्त भवेत ध्यानम् ॥ ] तस्य जीवस्य आर्तध्यानं भवेत् । तस्म कस्य । यो जीवः इति चिन्तयेत् ध्यायेत् तिष्ठति आखे । इति किम् । दुःखकर विषय योगे दुःखकराः आत्मनः प्रदेशेषु दुःखोत्पादका विषयाः चेतनाचेतनाः । चेतनविषयाः कुत्सितरूपदुर्गन्धशरीरदौर्भाग्य दुष्टकलत्रदुष्टपुत्रमित्रभृत्यशञ्जुसर्पादिकाः । अचेतनविषयाः परप्रयुक्तशस्त्रविषकष्टकादयः । तेषाम् अनिष्टानां संयोगे मेलापके सति इममनिष्ठपदार्थ के [ केम ] कथं केन प्रकारेण त्यजामि मुचामि इत्यपर ध्यान रहितत्वेन पुनःपुन चिन्तनं प्रवर्तनम् ।
केवल सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान होता है और अयोग केवली के व्युपरतक्रिया निवृत्ति नामक चौथा शुक्रभ्यान होता है | शुरुध्यान मोक्षका साक्षात् कारण है। किन्तु उपशम श्रेणि अपेक्षा में तीसरे भवमें मोक्ष होता है; क्योंकि उपशम श्रेणिमें जिस जीवका मरण हो जाता है। वह देवगति प्राप्त करके और पुनः मनुष्य होकर शुरू ध्यानके बलसे मोक्ष प्राप्त करता है || ४७२ ॥ आगे आर्त ध्यानका वर्णन करते हैं । अर्थ- दुःखकारी विषयका संयोग होनेपर 'यह कैसे दूर हो' इस प्रकार विचारता हुआ जो विक्षिप्त चित्त हो चेष्टा करता है, उसके आर्तध्यान होता है। तथा मनोहर विषयका वियोग होनेपर 'कैसे इसे प्राप्त करूँ' इस प्रकार विचारता हुआ जो दुःखसे प्रवृद्धि करता है यह भी आर्तध्यान है । भावार्थ- पहले कहा है कि किसी प्रकारकी पीड़ा से दुःखी होकर जो संकेश परिणामोंसे चिन्तन किया जाता है वह आर्तध्यान है । यहाँ उसके दो प्रकार बतलाये हैं । दुःख देनेवाले की, पुत्र, मित्र, नौकर, शत्रु, दुर्भाग्य आदि अनिष्ट पदार्थों का संयोग मिल जानेपर 'प्राप्त अनिष्ट पदार्थसे किस प्रकार मेरा पीछा छूटे' इस प्रकार अन्य सब बातों का ध्यान छोड़कर बारंबार उसी की चिन्तामै मन रहना अनिष्ट संयोग नामका आर्तध्यान है । तथा अपनेको प्रिय लगनेवाले पुत्र, मित्र, स्त्री, भाई, धन, धान्य, सोना, रत्न, हाथी, घोड़ा, वस्त्र आदि इष्ट वस्तुओंका वियोग हो जानेपर 'इस वियुक्त हुए पदार्थको कैसे प्राप्त करूँ' इस प्रकार उसके संयोगके लिये वारंवार स्मरण करना इष्ट वियोग नामका दूसरा आर्तध्यान हैं । अन्य ग्रन्थों में आर्तध्यानके चार प्रकार बतलाये हैं। इस लिये संस्कृत टीकाकारने अपनी टीकामें भी चारों आर्तध्यानों का वर्णन किया है। उन्होंने उक्त गाथा नं. ४७४ के उत्तरार्ध 'संतावेण पयत्ते' को अलग करके तीसरे आर्तव्यानका वर्णन किया है, और उसमें
१ [ चयमि]। २ व चिदि । म अ नं ४ कसग बियोगे ।