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________________ स्वी Harveen ३५८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा ७२प्रत्याख्यानसंज्वलनकषायाः कोधमानभायालोभादयः तारतम्यभावेन. यस्मिन् धर्मध्याने तत् मन्दकवायम् । धर्मध्यान मन्दकरायोदयेनोत्पन्न शुभछेदमात्रयबलेन जातं स्यात् । शुक्र शुक्रध्यानं स्यात् । कुतः । मन्दतमकवायतः मन्दतमरः लतादिशक्तिमिशिष्टाः संज्यस्नादयः कषायाः क्रोधादयः तेभ्यः जातं शुभतरशुरलेट्यावसेनोत्पलम् । अपिशब्दात् म केवलं तत्र गन्दतमरूपाये अपाये ईषदास्यादिकषाये अपूर्वकरणादौ निकषाये उपशान्तकषाये क्षीणकषाये । कीडशे । श्रुताब्ये पूर्वाधारिणि पृथरिवतर्कवी चाराख्यम् एकल वितर्कावीचारास्यं च भवति । तत् शुक्र होदि भवति न केवल तत्र केवलज्ञाने प्रयोदशगुणस्थाने चतुर्दशगुणस्थाने च केलिभि सूक्ष्म कियाप्रतिपातिश्परतक्रियानिवृशिलक्षणे दे सके ध्याने भक्तः । तथाहि 'शुके नाये पूर्वविदः । आधे द्वे शुक्रव्याने पृथत बबितर्कवीचारकत्वधितर्कावीचारसंझे पूर्वविदः सकल श्रुतज्ञानिनः द्वादशाङ्गश्रुतवेदिनः नवदशचतुर्दशपूर्वधरस्म मा साधुवर्गस्य भवतः, श्रुतक्रेवलिनः संजायते इत्यर्थः । चकारादमध्यानमपि भवति 'व्याख्यानतो विशेष प्रतिपतिर्न संदेहादलक्षणम्' इति वचनात् । श्रेण्यारोहणात् पूर्व धर्मध्यान भवति । श्रेण्योपशमक्षायिकयोस्तु द्वे शुक्रध्याने भवतः । तेन सकलश्रुतधरस्यापूर्वकरणात् पूर्व धर्म्य ध्यानं योजितम् । अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिकरणे सक्षमसाम्पराये उपशान्तकषाये चेति गुणस्थानचतुष्टये पृयक्त्ववितर्कवीचार नाम प्रथमं शुमच्यानं भवति । क्षीणकषायगुणस्थाने तु एकस्ववितर्कावीबारे भवति । 'परे केवलिनः' परे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्यपरतक्रियानिवर्तिनानी द्वे शुक्रध्याने केवलिनः प्रक्षीणरामस्तज्ञानावृतेः सयोगकेवलिनोऽयोगकेवलिनश्चानुक्रमेण ज्ञातव्यम् । कोऽसौ अनुक्रमः । सुक्ष्मक्रियाप्रतिपातितृतीयशुमध्यानं सयोगस्य केवलिनो भवति । व्युपरतक्रिमानिर्ति चतुर्थ शुक्रध्यानम् भयोगस्य घरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायके उदयमें होता है । इसलिये अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है । क्यों कि इन गुणस्थानों में कषायकी मन्दता रहती है। किन्तु मुख्यरूपसे धर्मध्यान सातवें अप्रमत्त संयत गुणस्थानमें ही होता है; क्यों कि सातवें गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपाय का तो उदय ही नहीं होता और संचलन कषायका भी मन्द उदय होता है । तथा शुरुभ्यान उससे मी मन्द कषायका उदय होते हुए होता है । अर्थात् जब कि धर्मध्यान तीन शुभ लेश्याओंमें से किसी एक शुभ लेश्याके सद्भावमें होता है तब शुक्लध्यान केवल एक शुक्ल लेश्यावालेके ही होता है । अतः सध्यान आठवें अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंमें होता है, क्यों कि आठवें नौवें और दसवें गुणस्थानमें संचलन कषायका उत्तरोत्तर मन्द उदय रहता है, तथा सातवें गुणस्थानकी अपेक्षा मन्दतम उदय रहता है। किन्तु शुक्ल यान कषायके केवल भन्दतम उदयमें ही नहीं होता, बल्कि कषायके उदयसे रहित उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानमें और क्षरण कषाय नामक बारहवें गुणस्थानमें भी होता है । तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली भगवानके भी होता है । आशय यह है कि शुक्लध्यानके चार भेद हैं-पृथक्तरवितर्कवीचार, एकत्वनितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और ध्युपरतक्रियानिवृत्ति । इनमेंसे आदिके दो शुक्ल ध्यान बारह अंग और चौदह पूर्वरूप सकल श्रुतके ज्ञाता श्रुतकेवली मुनिके होते हैं। इन मुनिके धर्मध्यान भी होता है । किन्तु एक साथ एक व्यक्तिके दो ध्यान नहीं हो सकते, अतः श्रेणि चढ़नेसे पहले धर्म ध्यान होता है, और उपशम अथवा क्षपक श्रेणिमें दो शुक्ल भ्यान होते हैं । अतः सकल श्रुत धारीके अपूर्वकरण नामक आठवें गुण स्थानसे पहले धर्मध्यान होता है, और आठवे अपूर्वकरण गुणस्थानमें, नौवें अनिवृतिकरण गुणस्थानमें, दसर्ने सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमें, ग्यारहवें उपशान्त कषाय गुणस्थानमें पृथक्त्व वितर्कवीचार नामक पहला शुक्लध्यान होता है । क्षीण कषाय नामक बारहवें गुणस्थानमें एकत्व वितर्क अवीचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान होता है। सयोग
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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