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१२. धर्मानुप्रेक्षा
असु अट्ट-रवदं धम्मं सुकं व सुहयरं होदि ।
अहं तिब्व- कसायं तिब्व-तम- कसायदो रुई ॥ ४७१ ॥
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[ छाया-अशुभम् आतैरौद्रं धर्म्य च शुभकरं भवति । आर्ट तीमकषायात् तीव्रतमकवायतः रौद्रम् ॥ ] अशुभमाÄरौद्रं भवति । दुःखम् अर्वनं कष्टम् अर्तिर्वा कृतमुध्यते कृते दुःखे भवमार्तम् । स्वः क्रुराशयः कृष्णलेश्यापरिणामः प्राणी । यदस्थ कर्म रौद्र रुद्रे वा भवं रोम् । अशुभम् अप्रशस्तम् । आयमार्तध्यानं प्रथमम् १। द्वितीय रौद्रष्यानमशुभम प्रशखपापप्रकृतिनिबन्धनं नरकगतिप्रदं कृष्णलेश्योद्धवमिति रौद्र्ध्यानमशुभं द्वितीयम् २ । धर्म्यं धर्मध्यानं शुभं प्रशस्तं पुष्यप्रकृतिमन्धनं स्वर्गादिसुखदायकं पारंपर्येण मोक्षहेतुकमिति शुभं प्रशस्तं धर्मध्यानम् । धर्मो वस्तुस्वरूपं धर्मादनपेतं धर्म्यं ध्यानं तृतीयम् ३ । च पुनः शुकं शुक्रभ्यानं मलरहितजीव परिणामोद्भवं शुचिगुणयोगाच्छुकं कुलेश्योद्भवं
शुभतरम् अतिशयेन श्रेष्टम् अतिशयेन प्रशस्तं मोक्षदायकमिति चतुर्थ शुक्रभ्यानमिति शुभतरम् । अथ वर्धगाथमा ध्यानामा तीव्रतरादिकषायमेदान् निगदति । अर्द्ध आर्तम् अर्को पीडादिचिन्तने भवमार्त ध्यानम् तीव्रकषायं सीत्राः दादिविशेषाः अनन्तानुबन्ध्यादिकषायाः क्रोधमानमायालोभादयो यस्मिन् आर्तध्याने तत् तथोक्तम् आर्तध्यान चीनकषार्य चैत्यम् । कुतः । तीव्रतम कषायतः तीव्रतमा अस्थिशिलाशक्तिविशिष्टाः अनन्तानुबन्ध्यादिकोषमानमायास्त्रे भादिकषायाः तेभ्यः जातं तीव्रतमकषायोत्पचं रौद्रध्यानं स्यात् ॥ ४७१ ॥ मंद - कसायं धम्मं मंद-तम- कसायदो हवे सुकं ।
अकसाए वि सुयडे' केवल-णाणे वि तं होदि ॥ ४७२ ॥
[ छायामन्वकषायं धर्म्यं मन्दतमकषायतः भवेत् शुक्रम्। भकषाये अपि श्रुताये केवलज्ञाने अपि तत् भवति ॥ ] ध में खखरूपे भचये ध्यानम् । कीदृक्षम् । मन्दकषायं मन्दाः दानन्तेकभागलताशक्तिविशेषाः अप्रत्याख्यान
नहीं है । भ्यान अच्छा मी होता है और बुरा मी होता है । जिस ध्यानसे पाप कर्मका आसव होता हो वह अशुभ है और जिससे कर्मों की निर्जरा हो वह शुभ है || ४७० ॥ आगे इन दोनों ध्यानोंके कहते हैं । अर्थ- आर्तध्यान और रौदध्यान ये दो तो अशुभ ध्यान हैं । और धर्म ध्यान तथा शुक्रभ्यान ये दोनों शुभ और शुभतर हैं। इनमेंसे आदिका आर्तध्यान तो तीन कषायसे होता है और रौद्रध्यान अति तीव्र कषायसे होता है ॥ भावार्थ - अर्ति कहते हैं पीड़ा या दुःखको । दुःखसे होनेवाले ध्यानको आर्तध्यान कहते हैं । यह आर्तध्यान तीव्र कषायसे उत्पन्न होता है । कृष्ण लेश्या वाले क्रूर प्राणीको रुद्र कहते हैं, और रुद्रके कर्नको अथवा रुद्र में होनेवाले ध्यानको रौद्र कहते है। यह रौद्रध्यान आर्तध्यानसे भी खराब है, चूंकि यह अत्यन्त तीव्र कषायसे होता है। इसीसे ये दोनों अशुभ ध्यान है । धर्मसे युक्त ध्यानको धर्मध्यान कहते हैं । यह धर्मध्यान शुभ है, क्योंकि इससे पुण्यकमका बन्ध होता है, अतः यह स्वर्ग आदिके सुखोंको देनेवाला है तथा परम्परासे मोक्षका भी कारण है। जीवके निर्मल परिणामोंसे अथवा शुक् लेश्यासे ही होनेवाले ध्यानको शुरु ध्यान कहते हैं। यह ध्यान सफेद रंग की तरह स्वच्छ होता है, इस लिये 'शुचि' गुणसे युक्त होनेके कारण इसे शुक्र ध्यान कहते हैं । यह ध्यान धर्मध्यान से मी श्रेष्ठ है क्योंकि मोक्षकी प्राप्ति इसी ध्यानसे होती है || ४७१ ॥ अर्थ - धर्मध्यान मन्द कषायसे होता है, और शुक्रध्यान अत्यन्त मन्द कषायसे होता है । तथा यह ध्यान कषाय रहित श्रुत ज्ञानीके और केवल ज्ञानीके भी होता है | भाषार्थ - धर्मध्यान अस्माख्याना
१ म सुगडे ।