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३५६ स्थामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा०४७०दोलामितादयः ३२ । क्रियाकरणे कायोत्सर्गस द्वात्रिंदादोषाः । व्युत्सृष्टबाहुयुगले चतुरलान्तरितसमपादे साचलमरहिते कायोत्सर्गेऽपि दोषाः स्युः । आर्षे चोक्तम् १"वितस्त्वन्तरपादानं तयशान्तरपाष्णिकम् । सममृज्वायतस्थानमास्थाय रचितस्थितिः । इत्युक्तकायोत्सर्गः । घोटकपाद लतावकं स्वम्भावष्टम्भं कुख्याधित मालिकोबइन शबरीगुह्यगृहनं शंखलितं लम्बितम् उत्तरितं स्तन दृष्ठिः काकाबलोकनं खलीनितं युगकन्धरं कपित्श्चमुष्टिः शीर्षप्रकम्पन मूकसंज्ञा अलिचालनं भ्रक्षेपम् उन्मनं पिशाचम् अष्टदिगबलोकन ग्रीवोचमनं निष्ठीवनम् भास्पर्शन मिति चारित्रसारादी मन्तव्याः। किमर्थ व्युत्सर्गः । निःसंगलं निर्भयत्वं जीवताशानिरासः दोषोच्छेदो मोक्षमार्गभावनापरत्वमित्याद्यर्थम् ॥४६५ || अथ ध्यानमभिधत्ते--
अंतो-मुहुस-मेतं लीणं वत्थुम्मि' माणसं गाणं ।
शाणं भण्णदि समए असुहं च सुहं च तं दुविहं ॥ ४७०॥ । [छाया-अन्तर्मुहूर्तमानं लीनं वस्तुनि मानसे ज्ञानम् । ध्यान भग्यसे समये अशुभं च शुभं च तत् द्विविधम् ॥] समये सिद्धान्ते जिनागमे अभ्यते कथ्यते । कि तत् । ध्यानं घ्यायते चिन्यते इति ध्यानम् । तत् कियकालम् । अन्तर्मुहर्तमात्र मुहूर्तस्य घटिकाइयस्म मध्ये अन्तर्मुहूर्तमात्रम् , अन्तर्मुहूर्तकालं ध्यान तिष्ठतीत्यर्थः । एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तकाल ध्यानं विछतीत्यर्थः । उक्त चोमाखामिना 1 एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् । अन्तर्मुहूर्तकाल मर्यादी कृत्य घ्यानं भवति । अन्तर्मुहर्तात परतः एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणवान न भवतीत्यर्थः । कि तत् ध्यानम् , वस्तुनि लीने वस्तुनि पदार्थ जीवादिपदार्थे द्रव्ये पर्याये वा लीनं लयं प्राप्तम् एकत्वं गतम् एकाप्रताप्राप्तम् । मानसशानमेव मनसि भवं मानसोत्पनशान ध्यानमेव । तत् ध्यान द्विविधं द्विप्रकारम्, प्रशस्ता प्रशस्तभेदात् वैधम्, पापास्त्रबाहेतुत्वादशभम् अप्रशस्तमातरौद्रध्यानद्वयम् , शुभं कर्ममलकालनिर्दइनसमर्थ धर्मशुस्वयं प्रशस्तम् ॥४०॥ अथ ते २ ध्याने विभजति
निश्चल खड़े रहनेका नाम कायोत्सर्ग है। उसके बत्तीस दोष इस प्रकार हैं--घोड़े की तरह एक पैरको उठाकर या नमाकर खड़े होना, साकी तरह अंगीको हिलाना, स्तम्भक सारस ख होना, दीवारके सहारेसे खड़े होना, मालायुक्त पीठके ऊपर खड़े होना, भीलनीकी तरह जंघाओंसे जघन भागको दबाकर खड़े होना, दोनों चरणोंके बीचमें बहुत अन्तराल रखकर खड़ा होना, नाभिसे ऊपरके भागको नमाकर अथवा सीना तानकर खड़े होना, अपने स्तनों पर दृष्टि रखना, कौवेकी तरह एक ओरको ताकना, लगामसे पीड़ित धोड़की तरह दातोंका कटकटाना, जुएसे पीड़ित बैलकी तरह गर्दनको फैलाना, कैथकी तरह मुट्ठियोंको कारके कायोत्सर्ग करना, सिर हिलाना, गंगेको तरह मुँह बनाना, अंगुलियोंपर गिनना, भृकुटी चलाना, शराबीकी तरह उंगना, पिशाचकी तरह लगना, आठों दिशाओंकी ओर ताकना, गर्दनको झुकाना, प्रणाम करना, थूकना या खकारना और अंगोंका स्पर्श करना, कायोत्सर्ग करते समय ये बत्तीस दोष नहीं लगाने चाहिये ।। ४६९॥ आगे ध्यानका वर्णन करते हैं । अर्थ-किसी वस्तुमै अन्तर्मुहूर्त के लिये मानस ज्ञानके लीन होनेको आगममें ध्यान . कहा है ! वह दो प्रकारका होता है-एक शुभ ध्यान और एक अशुभ ध्यान ॥ भावार्थ-मानसिक ज्ञानका किसी एक द्रव्यमें अथवा पर्यायमें स्थिर होजाना ही ध्यान है । सो मानका उपयोग एक वस्तुमें अन्तर्मुहूर्त तक ही एकाग्र रहता है। तत्वार्थसूत्रमें भी कहा है-'एक वस्तुमें चिन्ताके निरोधको ध्यान कहते हैं, वह अन्तर्मुहूर्त तक होता है । अतः ध्यान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । क्यों कि इससे अधिक काल तक एक ही ध्येयमें मनको एकाग्र रख सकना सम्भव
१ लसण वत्थुम्दि। २ म असुई सुद्धं च ।