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________________ ३६० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा सन् विक्षि [ गा० ४७३कथम् एतस्य मत्सकाशात् विनाशो भविष्यति यास्यतीति चिन्द्रात्रयः अनियोग वि व्याकुलता प्राप्तः आकुल व्याकुलमना इति श्रनिष्टसंयोगाभिधानम् आर्तध्यानम् १ । सो चिय तदेवार्तध्यानं भवेत् । तत् किम् । यः इत्यमुना प्रकारेण विकरूपः मनतो वस्तुविषये परिचिन्तनं विकरूपः मेदो वा । इति किम् । मनोहरविषयवियोगे सति, मनोहराः विषयाः इष्टपुत्रमित्रकलत्रासूधनधान्यसुवर्ण रजगजतु र जनस्त्रादयः तेषां वियोगे विप्रयोगे तं वियुक्त पदार्थ कथं प्रापयामि लभे तत्संयोगाय वारंवारं स्मरणं विकल्पश्चिन्ताप्रबन्ध वियोगाख्यं द्वितीयमार्तध्यानम् २ | संतापेन पीडाश्चिन्तनेन वातपित्त चष्म व कुठंदर भगंदर शिरोर्तिजठर पीडाबेदनानां संसापेन पीडितेन प्रवृतः विकल्पः चिन्ता प्रबन्धः कथं वेदनाया विनाशो भविष्यतीति पुनः पुनचिन्तनम् अङ्गविक्षेपाक्रन्दकरणादिपीड । चिन्तनं तृतीयमार्तध्यानम् ३ । चकारात् निदानं दृष्टश्रुतानुभवेइपरलोकभोगाकांक्षाभिलाषः निदानं चतुर्थमार्तध्यानं स्यात् ४ । तथा हि ज्ञानार्णवे तवार्थादौ च " अनिष्टयोगजन्माद्यं तथेष्टार्थात्ययात्परम् । रुकप्रकोपात्तृतीयं स्यानिदानात्तुर्यमजिनाम् ॥” अनिष्टयोगम्, तद्यथा । "ज्वलनवनविषास्त्रध्याशार्दूलदैलैः स्थलजलबिलसवैदुर्जनारातिभूपैः । स्वजनधन शरीरध्वंसिमिस्तैरनिष्ठेर्भवति यदिह योगादाद्यमार्तं तदेतत् ॥” "राजैश्वर्य कलत्रबान्धवसुहत्सौभाग्यभोगात्यये चित्तप्रीतिकर प्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा । संत्रास भ्रम शोकमोहविवशैर्यविद्यतेऽहर्निशं तत्स्यादिवियोग तनुमतां ध्यानं कलङ्कास्पदम् ॥” “कासश्वासभगन्दरोदरजराकुष्ठातिसार ज्वरैः, पित्तश्लेष्ममप्रकोपजनित रोगैः शरीरान्तर्कः । स्याच्छश्वत्प्रबलैः प्रतिक्षणभhool, द्रोगार्तमनिन्दितैः प्रकटितं दुर्वारमुः खाकरम् ॥" "भोगा भोगीन्द्रसेव्या स्त्रिभुवनजयिनी रूपसाम्राज्यलक्ष्मी, राज्यं श्रीगारिचकं विजितमुरवधूलास्यलीला युवत्यः । अन्यचेदं विभूनं कथमिह भवतीत्यादिचिन्तासुभाजी, योगार्तमुक्तं परमगणधरैर्जन्मसंतान सूत्रम् ॥” “पुण्यानुष्ठान जातैरमिलषति पदं यज्जिनेन्द्रामराणां यज्ञा तैरेव वाञ्छत्य• हित कुल कुच्छेदमन्तकोपात् । पूजा सत्कारलाभप्रभृतिकमथवा जायते यद्विकल्पैः स्यादार्त तष्ठिदानप्रभवमिद नृणां दुःख | आये 'च' शब्दसे चौथे आर्तध्यानको ले लिया है। ज्ञानार्णव आदिमें इन चारों आर्तध्यानौका विस्तारसे वर्णन किया है जो इस प्रकार है-अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, रोगका प्रकोप और निदानके निमित्तसे आर्तध्यान चार प्रकारका होता है। अपने धन आप्त और शरीरको हानि पहुँचनेवाले अग्नि, विष, अख्ख, सर्प, सिंह, दैव्य, दुर्जन, शत्रु, राजा आदि अनिष्ट वस्तुओंके संयोगसे जो आर्तव्यान होता है वह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान हैं । चित्तको प्यारे लगनेवाले राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री, बन्धु, मित्र, सौभाग्य और भोगोंका वियोग हो जानेपर शोक और मोहके वशीभूत होकर जो रात दिन खेद किया जाता है वह इष्ट वियोगज आर्तध्यान है। शरीरके लिये यमराजके समान और पित्त, कफ़ और वायुके प्रकोप से उत्पन्न हुए खांसी, श्वास, भगंदर, जलोदर, कुष्ठ, अतीसार, ज्वर, आदि मयानक रोगसे मनुष्यों का प्रतिक्षण व्याकुल रहना रोगज आर्तिध्यान है । यह दुर्बार दुःखकी खान है । भोगी जनके द्वारा सेवनेयोग्य भोग, तीनों लोकोंको जीतनेवाली रूपसम्पदा, शत्रुओंसे रहित निष्कंटक राज्य, देवांगनाओंके विलासको जीतनेवाली युवतियाँ, अन्य भी जो संसारकी विभूति है वह मुझे कैसे मिले, इस प्रकारकी चिन्दा करनेवालोंके भोगज आर्तध्यान होता है । गणधर देवने इस आभ्यानको जन्म परम्पराका कारण कहा है। पुण्यकर्मको करके उससे देव देवेन्द्र आदि पदकी इच्छा करना, अथवा पूजा, सत्कार, धनलाभ आदिकी कामना करना अथवा अत्यन्त क्रोधित होकर अपना अहित करनेवालोंके कुलके विनाशकी इच्छा करना निदान नामका आर्तध्यान है। वह आर्तध्यान मनुष्योंके लिये दुःखोंका घर है । इस आर्तध्यानका फल अनन्त दुःखोंसे भरी हुई तिर्यश्चगतिकी प्राप्ति ही है। यह आर्त ध्यान कृष्णनील आदि अशुभ लेश्या के प्रतापसे होता है। और पापरूपी दावानलके लिये ईंधनके समान है । मिध्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यक् मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि इन चार I i +
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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