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________________ MyanmM SlamtiPAN श्रीवीतरागाय नमः खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा श्री-शुभचन्द्र-विरचितया टीकया हिन्दी-अनुवादेन च सहिता ॥ श्रीपरमात्यने नमः॥ शुभचन्द्र जिनं नत्वानन्तानन्तगुणार्णवम् । कार्तिकेयानु प्रेक्षायाटीका बक्ष्ये शुभदिये ।। अथ स्वामिकार्तिकेयो मुनीन्द्रोऽनुप्रेक्षा व्याख्यातुफामः मलगालनमावाप्तिलक्षणामाचष्टे तिवण-तिलयं देवं वंदित्ता तिहुवर्णिद-परिपुर्ज। वोई अणुपेहाओ' भचिय-जणाणंद-जणणीओ ॥१॥ {छाया-त्रिभुवनतिलकं देवं पन्दित्वा त्रिभुवनेन्द्रपरिपूज्यन् । वश्य अनुप्रेक्षाः भव्यजनानन्दजननीः ॥ वक्ष्ये प्ररूपयिष्यामि । काः । अनुप्रेक्षाः । अनु पुनः पुनः प्रेक्षणं चिन्तनं स्मरणमनित्यादिवरूपाणामित्यनुप्रेक्षा, (निजनिकमामानुसारेण तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा इत्यर्थः । ताः कथंभूताः। भव्यजनानन्दजननीः भाविनी सिद्धियेषी 'वै भव्याः, ते च ते जनाश्च लोकास्तेषामानन्दो हर्षोऽनन्तसुखं तस्य जनन्यो मातरः, उत्पत्तिहेतुस्वात् । किं कृत्वा । वन्दित्वा नमस्कृत्य । कम् । देवम् दीव्यति क्रीडति परमानन्दे इति देवः, अथवा दीव्यति कर्माणि जेतुमिच्छति, इति देवः वाचव्यति कोटिसूर्याधिकतेजसा द्योतत इति देत्रः अईन् । वादीव्यति धर्मव्यवहार विदधाति इति देवः, वादीव्यति लोकालोकं गच्छति जानाति, ये गत्यास्ते ज्ञानार्था इति बचनात्, इति देवः सिद्धपरमेष्ठी, । श्रीवीतरागाय नमः । श्रीमवीरं जिनं मस्खा शुभचन्द्रेण व्याकृतम् । अनुप्रेक्षात्मकं पास्त्रं वक्ष्येऽहं सदभाषया ।। अनुप्रेक्षाओंका व्याख्यान करनेके इच्छुक स्वामीकार्तिकेय नामके मुनिवर पापोंके नाश करनेवाले और सुखकी प्राप्ति करानेवाले मङ्गलश्लोकको कहते हैं । अर्थ-तीन भुवनके तिलक और तीन भुवनके इन्द्रोंसे पूजनीय जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके भव्यजनोंको आनन्द देनेवाली अनुप्रेक्षाओंको कहूँगा || भावार्थ-ग्रन्थकारने इस गायाके पूर्वार्द्ध में इष्टदेवको नमस्कार करके उत्तरार्द्ध में ग्रन्थके वर्ण्य विषयका उल्लेख किया है । 'देव' शब्द 'दिव्' धातुसे बना है, और 'दिव्' धातुके 'फ्रीडा करना' 'जयकी इच्छा करना' आदि अनेक अर्थ होते हैं । अतः जो परमसुखमें क्रीडा करता है, वह देव है। या जो कमोंको जीतनेकी इच्छा करता है, यह देव है । अपना जो करोड़ों सूर्योंके तेजसे मी अधिक तेजसे दैदीप्यमान होता है, वह देव है, जैसे अर्हन्त परमेष्ठी । अथवा जो धर्मयुक्त व्यवहारका विधाता है, वह देव है । अथवा जो लोक और अलोकको जानता है, वह देव है, जैसे सिद्ध परमेष्ठी । अथवा जो अपने आत्म मस विडप्रणिछ। २ बम पुछ। र अगुवाओ । न
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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