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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०२वा दीव्यति स्तौति खचिद्रूपमिति देवः सूरिपाठकसाधुरूपस्तम् । कीरक्षम् । त्रिभुवनतिलकं त्रिभुवने अगरत्रये तिलकमिष तिलकः, जगच्छेपत्वात् । वा पुनरपि कीरक्षम्। त्रिभुवनेन्द्रपरिपूज्य त्रिभुवनस्यन्द्राः सुरेन्द्रधरणेन्द्रादयस्तैः परिपूज्यं परि समन्तात् पूज्यः मज़स्तम् ॥ १॥ अथ द्वादशानुप्रेक्षाणां नाममात्रोद्देशं गाथाइयेन दर्शयति अद्धव असरण भणिया संसारामेगमण्णमसुइत्तं । आसव-संवर-णामा णिज्जर-लोयाणुपेहाओ' ॥२॥ इय जाणिऊण भावह दुलह-धम्माणुभावणा णिच्चं । मण-वयण-काय-सुद्धी एदा दस दो य भणिया हुँ ॥३॥ [छाया-अध्रुवमशरणं भणिताः संसारमेकमन्यमशुचित्वम् । आनषसंवरनामा निर्जरालोकानुप्रेक्षाः॥ इति शाखा भावयत दुर्लभधर्मानुभावनाः नित्यम् । मनोषचनकायशुमा एताः दश द्वौ च भमिताः खल ॥] एता द्वादशानुप्रेक्षाः, उद्देशतः (पदार्थाना नाममात्रेण कीर्तन मुद्देशः तस्मात् , तमाश्रित्य भणितं कथितं भावयत भो भव्या भावनाविषयी फुरुत । कया। मनोवचनकायशुब्धा । किं कृत्वा । इति प्रोच्यमानमनित्यादिस्वरूपं नित्यं सर्दव ज्ञात्वा । इति किम् । अनुवं नर्व नित्यम् अध्रुवम् इति अनिस्यानुप्रेक्षा । अनुप्रेक्षाशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। अशरणानुप्रेक्षा भणिता, न शरणम् शरणम्, अथवा न विद्यते शरममावानखीपाजामहारपाका । २ । संसार संसरणम. अथवा संसरन्ति पर्यटन्ति यस्मिन्निति संसारः, परिभ्रमणम्, पञ्चधा प्रोक्तः द्रव्यक्षेत्रकालभवभावमेदात्, संसारानुप्रेक्षा । ३ । एकस्य आत्मनो भावः एकत्यम् एकत्वानुप्रेक्षा । ४ । शरीरादेः अन्यस्य भावः अन्यत्वम् अन्यत्वानुखरूपका स्तवन करता है, वह देव है, जैसे आचार्य, उपाध्याय और साधु । जैसे उत्तमाझपर लगाया जानेके कारण तिलक श्रेष्ठ समझा जाता है, वैसे ही संसारमें श्रेष्ठ होने के कारण वह देव तीन भुवनके तिलक कहलाते हैं और तीन भुवनके इन्द्र उनकी पूजा करते हैं । उन देवको नमस्कार करके मैं अनुप्रेक्षाओंका कथन करूंगा। बार बार चिन्तन करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं । अर्थात् अपने अपने नामके अनुसार वस्तुके खरूपका विचार करना अनुप्रेक्षा है । जिन जीवोंको आगे सिद्धपदकी प्राप्ति होनेबाली है, उन्हें भव्य कहते हैं। अनुप्रेक्षाओंसे उन भन्यजनोंको अनन्तसुख प्राप्त होता है; अतः उन्हें आनन्दकी जननी अर्थात् माता कहा है ॥ १ ॥ अब दो गाथाओंसे बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम बतलाते हैं । अर्थ-अधुत्र, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, दुर्लभ और धर्म, ये बारह अनुप्रेक्षाएँ है । यहाँ इन्हें उद्देशमात्रसे कहा है। इन्हें जानकर शुद्धमन, शुद्धवचन और शुद्धकायसे सर्वदा भावो || भावार्थ-वस्तुके नाममात्र कहनेको उद्देश कहते हैं। यहाँ बारह अनुप्रेक्षाओंका उद्देशमात्र किया है। उन्हें जानकर शुद्ध मन, वचन, कायसे उनकी निरन्तर भावना करनी चाहिये । गाथामें आये अनुप्रेक्षा शब्दको अधुत्र आदि प्रत्येक भावनाके साथ लगाना चाहिये । संसारमें कुछ मी भुत्र अर्थात् नित्य नहीं है, ऐसा चिन्तन करनेको अध्रुव या अनिल्य अनुप्रेक्षा कहते हैं । संसारमें जीचको कोई भी शरण नहीं है, ऐसा चिन्तन करनेको अशरण अनुप्रेक्षा कहते हैं । जिसमें जीव संसरण-परिभ्रमण करते रहते हैं, उसे संसार कहते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, और भबके भेदसे वह संसार पाँच प्रकारका है । उसका चिन्तन करनेको संसार अनुप्रेक्षा कहते हैं । एक आत्माके भात्रको एकत्व कहते हैं । जीवके एकत्व-अकेलेपनके चिन्तन करनेको एकत्र अनुप्रेक्षा कहते म मझुम । रच 'गुवेहायो। २५ भायडु । म सग पदा ओसदो भणिया (मस भणियं)।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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