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________________ ४] १. अनित्यानुप्रेक्षा प्रेक्षा । ५ । न शुचिरपवित्रकायः शुचिः तस्य भावः अशुन्विस्वम् अशुचित्वानुप्रेक्षा।६। मानवतीति मानव आसवानुप्रेक्षा । ७ । कर्मागमन संघृणोति अभिनवकर्मणां प्रवेश क न ददातीति संवरः संवरनामानुप्रेक्षा । । । एकदेशेन कर्मणः निजेरणं गलन अधःपतनं शटनं निर्जरा निर्जरानुप्रेक्षा। लोक्यन्ते जीवादयः पदायों यस्मिचिति लोकः शोकानुप्रेक्षा । १० । दुःखेन बोधिर्लभ्यते दुर्लभः दुलभानुप्रेक्षा । ११ । उसमपदे धरतीति धर्मः, धर्मानुभावना धर्मस्पानुभवनम् मनुप्रेक्षणं धर्मानुभावना धर्मानुप्रेक्षा। १२ । एतासां स्वरूप यथास्थानं निरूपयिष्यामः ॥ २-३ ॥ १. अनित्यानुप्रेक्षा अथैकोनविंशतिगाथाभिरनित्यानुप्रेक्षा व्याख्याति-- 'ज किंचिं वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेई णियमेण । परिणाम सरूवेण विण य किंचि' वि सासयं अस्थि ॥४॥ [छायान्यत् किंचिदपि उत्पर्म तस्य विनाशः भवति नियमेन । परिणामस्वरूपेगापि न च किंचिदपि पावत. मस्ति यत् किमपि वस्तु उत्पन्नम् बत्पतिप्राप्त जन्मप्राप्तमित्यर्थः, तस्यापि वस्तुनः विनाशः भक्तः भवेत् नियमेन है ! शरीर श्रादि अन्य दाभोंके भालको अन्यत्व कहते हैं । आत्मासे शरीर आदि पृथक् चिन्तन करनेको अन्यत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं । अशुचि-अपवित्र शरीरके भावको अशुचित्व कहते हैं। शरीरकी अपवित्रताका चिन्तन करना अशुचित्त्व अनुप्रेक्षा है । आनेको आस्रव कहते हैं । कमोंके आस्रवका चिन्तन करना आस्रव अनुप्रेक्षा है । आखरके रोकनेको संवर कहते हैं । उसका चिन्तन करना संवर अनुप्रेक्षा है। कोके एकदेश क्षय होनेको निर्जरा कहते हैं । उसका चिन्तन करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है । जिसमें जीवादिक पदार्थ पाये जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । उसका चिन्तन काना लोक अनुप्रेक्षा है । ज्ञानकी प्राप्ति बड़े कष्टसे होती है, अतः वह दुर्लभ है । उसका चिन्तन करना दुर्लभ अनुप्रेक्षा है । जो उत्तम स्थानमें धरता है, उसे धर्म कहते हैं । उसका चिन्तन करना धर्म अनुप्रेक्षा है । इनका विस्तृत खरूप आगे यथास्थान कहा जायेगा ॥२-३ ।। अब उन्नीस गाषाओंसे अनिसानुप्रेक्षाका व्याख्यान करते हैं । अर्थ-जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, उसका विनाश नियमसे होता है । पर्यायरूपसे कुछ भी निल्य नहीं है ॥ भावार्थ-जो कुछ भी वस्तु उत्पन्न हुई है, अर्थात् जिसका जन्म दुआ है, उसका विनाश नियमसे होता है। पर्यायरूपसे चाहे वह स्वभावपर्याय हो अथवा विभावपर्याय हो-कोई भी वस्तु नित्य नहीं है । गाथा में एक 'अपि' शब्द अधिक है । वह ग्रन्थकारके इस अभिप्रायको बतलाता है कि यस्तु द्रव्यत्व और गुणत्वकी अपेक्षासे कथञ्चित् निस्य है और पर्यायकी अपेक्षासे कश्चित् अनित्य है । सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य कुछ भी नहीं है | गाथाके पूर्वार्द्धसे मन्थकारने उन्हीं वस्तुओंको अनित्य बतलाया है, जो उत्पन्न होती हैं, जिन्हें उत्पन्न होते और नष्ट होते हम दिन रात देखते हैं, और स्थूल बुद्धिवाले मनुष्य मी जिन्हें अनित्य समझते हैं। किन्तु उत्तरार्धसे वस्तुमात्रको अनिष्य बतलाया है। जिसका खुलासा इस प्रकार है-जैन दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु-वन्य, गुण और पर्यायोंका एक समुदायमात्र है । गुण और पर्यायोंके समुदायसे अतिरिक्त वस्तु नामकी कोई पृथक् चीज १ गाभारम्भब भरवाणुवेक्खा। एबमसन किंपि। गवा। ४बय। ५मसग किंपि!
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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