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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
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अवश्यम्, परिणामस्वरूपेणापि पर्यायस्वरूपेण खभावविभावर्यायरूपेणापि किमपि वस्तु शाश्वतं धुर्व निलं न च अस्ति विद्यते । अधिकः अपिशब्दः आचार्यस्याभिप्रायान्तरं सूचयति, तेन द्रव्यत्वापेक्षया गुणत्वापेक्षया च वस्तुनः कि नित्यस्वं पर्यायापेक्षया कथंचिदनित्यत्वमिति ॥ ४ ॥
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नहीं है। यदि संसारकी किसी भी वस्तुकी बुद्धि और यंत्रोंके द्वारा परीक्षा की जाये तो उसमें गुण और पर्याय के सिवा कुछ भी प्रमाणित न हो सकेगा । अथवा यदि किसी वस्तुमेंसे उसके सब गुणों और पर्यायोंको अलग कर लिया जाये तो अन्तमें शून्य ही शेष रह जायेगा । किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि गुण कोई जुदी चीज है, और पर्याय कोई जुदी चीज है, और दोनोंके मेल से एक वस्तु तैयार होती है । यह सर्वदा ध्यान में रखना चाहिये कि गुण और पर्यायकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है । वस्तु एक अखण्ड पिण्ड है, बुद्धिभेदसे उसमें भेदकी प्रतीति होती है । किन्तु वास्तव में वह भेच नहीं है । जैसे, सोनेमें पीलेपना एक गुण है और तिकोर, चौकोर, कटक, केयूर आदि उसकी पर्यायें हैं। सोना सर्वदा अपने गुण पीलेपना और किसी न किसी पर्यायसे विशिष्ट ही रहता है। सोनेसे उसके गुण और पर्यायको क्या किसीने कभी पृथक् देखा है ? और क्या पीलेपना गुण और किसी भी पर्यायके विना कभी किसीने सोनेको देखा है ? अतः पीतता आदि गुण और कटक आदि पर्यायोंसे भिन्न सोनेका कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है, और न सोनेसे भिन्न उन दोनोंका ही कोई अस्तित्व है। अतः वस्तु गुण और पर्यायोंके एक अखण्ड पिण्डका ही नाम है । उसमें से गुण तो नित्य होते है और पर्याय होती हैं। कैसे लेना सर्वदा रहता है, किन्तु उसकी पर्यायें बदलती रहती हैं, कभी उसका कड़ा बनाया जाता है, कभी कड़ेको गलाकर अंगूठी बनाई जाती है। इसी प्रकार जीव में ज्ञानादिक गुण सर्वदा रहते हैं, किन्तु उसकी पर्याय बदलती रहती है। कभी वह मनुष्य होता है, कभी तिर्यञ्च होता है और कभी कुछ और होता है । इस प्रकार जिन वस्तुओं को हम नित्य समझते हैं, वे भी सर्वथा नित्य नहीं हैं । सर्वथा नियका मतलब होता है उसमें किसी भी तरहका परिवर्तन न होना, सर्वदा ज्योंका त्यों कूटस्थ बने रहना । किन्तु संसार में ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो सर्वदा ज्यों की त्यों एकरूप ही बनी रहे और उसमें कुछ भी फेरफार न हो। हमारी आँखोंसे दिखाई देनेवाली वस्तुओंमें प्रतिक्षण जो परिवर्तन हो रहा है, वह तो स्पष्ट ही है, किन्तु जिन वस्तुओंको हम इन चर्मचक्षुओंसे नहीं देख सकते, जैसे कि सिद्धपरमेष्ठी, उनमें मी परपदार्थोक निमित्तसे तथा अगुरुलघु नामके गुणोंके कारण प्रतिसमय फेरफार होता रहता है। इस प्रतिक्षणकी परिवर्तनशीलताको दृष्टिमें रखकर ही बौद्धधर्ममें प्रत्येक वस्तुको क्षणिक माना गया है । किन्तु जैसे कोई वस्तु सर्वथा निष्प नहीं है, वैसे ही सर्वथा क्षणिक भी नहीं है। सर्वथा क्षणिकका मतलब होता है वस्तुका समूल नष्ट होजाना, उसका कोई भी अंश बाकी न बचना । जैसे, धड़के फूटने से ठीकरे होजाते हैं । यदि ये ठीकरे भी बाकी न बचे तो वजेको सर्वथा क्षणिक कहा जासकता है । किन्तु घड़ेका रूपान्तर ठीकरे होनेसे तो यही मानना पड़ता है कि घड़ा घारूपसे अनित्य है, क्योंकि उसके ठीकरे होजानेपर घडेका अभाव होजाता है। किन्तु मिट्टीकी दृष्टिसे वह नित्य है, क्योंकि जिस मिट्टीसे वह बना है, वह मिट्टी धड़े के साथ ही नष्ट नहीं होजाती । अतः प्रत्येक वस्तु द्रव्यदृष्टिसे निष्य है और पर्यायदृष्टिसे