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१. अनित्यानुप्रेक्षा जम्म मरणेण समं संपज्जइ जोधणं जरा-सहियं ।
लच्छी विणास-सहिया इय सर्व भंगुरं मुणह ॥ ५ ॥ [छाया-अन्म मरणेन समं संपद्यते यौचनं जरासहितम् । लक्ष्मीः विनाशसहिता इति सर्व भरे जानीहि ॥] इति अमुना उपप्रकारेण, सर्ने समस्तं वस्तु भगुरम् अनित्यं जानीहि विद्धि त्वं,हे भव्य । इति किम् । जन्म उस्मत्तिः मरणेन समं मरणेन महाविनाभावि संपद्यते जायते, यौवनं यौवनावस्था जरासहित बरसा वार्धक्येन सहितं गुतम्, लक्ष्मीः विनाशसहिता भवरयुका विपत्त्युपलक्षिता॥५॥
अथिरं परियण-सयणं पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं ।
गिह-गोहणाइ सवं जव-यण-विदेण सारिच्छं ॥६॥ [छाया-अस्थिरं परिजनस्वजनं पुत्रकलयं सुमित्रलावण्यम् । गृहगोधनादि सर्ष नवधनवन्देन सदृशम् ॥] अस्थिर घिनश्वरम् । कि तत् । परिजनः परिवारलोकः हस्विघोटकपदातिप्रमुखः, खजनः स्वकीयबन्धुवर्गः उत्तमपुरुषय, पुत्र
आत्मजः, कालय दाराः, सुमित्राणि सुहृज्जनाः, लावण्यं शरीरस्म लवणिम गुणः, गृहगोधनादि गृहम् आवासहापरावि गोधनानि गोकुलानि, आदिशब्दात् महिषीकरभखरप्रमुखाः । एतत् सर्व समस्त सदृशम् । केन । नरपनन्देन नूतनमेघसमूहन ६॥
सुरवणु-तडिव चवला इंदिय-विसया सुमिच्च-वग्गा य ।
दिट्ठ-पणहा सधे तुरय-गया रहवरादी य ॥७॥ [शया-सरधनस्तावित चपलाः इन्द्रियविषयाः समात्यवर्गाश्च । दृष्ट प्रनटाः सर्वे तरगगजाः स्वरादयमा इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि, विषयाः स्पर्शादयः, सुभृस्यवर्गः सुसेवकसमूहाः, च पुनः, चपलाः समाः । किंवत् । सरधनुस्खविद्वत् यथा इन्द्रधनुः चञ्चलम् , तडिद्वत् यथा विद्युत्, चञ्चला, च पुनः, तुर गगजरथवरादयः नुरगाः पोटकाः अनित्य ॥ ४ ॥ अर्थ-जन्म मरणके साथ अनुबद्ध होता है, यौवन बुढ़ापेके साथ सम्बद्ध होता है और लक्ष्मी विनाशके साथ अनुबद्ध होती है | इस प्रकार सभी वस्तुओंको क्षणभङ्गुर जानो ॥ भावार्थप्रसिद्ध कहावत है कि जो जन्म लेता है वह अवश्य मरता है । आजतक कोई मी प्राणी ऐसा नहीं देखा गया जो जन्म लेकर अमर हुआ हो । अतः जीवन और मरणका साथ है। जीवन और भरणकी ही तरह जवानी और बुढ़ापेका भी साथ है । आज जो जवान है, कुछ दिनोंके बाद वह बूढ़ा होजाता है । सदा जवान कोई नहीं रहता । अतः जवानी जब आती है तो अकेली नहीं आती, उसके पीछे पीछे बुढ़ापा भी आता है । इसी प्रकार लक्ष्मी और विनाशका मी साथ है। आज जो धनी है, कल उसे ही निर्धन देखा जाता है । सदा धनवान कोई नहीं रहता। यदि ऐसा होता तो राजसिंहासनपर बैठनेवाले नरेशोंको एथका भिखारी न बनना पड़ता । अतः क्या जीवन, क्या यौवन और क्या लक्ष्मी, समी वस्तुएँ नष्ट होनेवाली हैं ॥ ५ ॥ अर्थ-परिवार, बन्धुबान्धव, पुत्र, त्री, झले मित्र, शरीरकी सुन्दरता, घर, गाय, बैल वगैरह सभी वस्तुएँ नये मेधपटलके समान अस्थिर हैं। वर्षात् जैसे नये मेघोंका पटल क्षणभरमें इधर उधर उड़कर नष्ट होजाता है, वैसे ही कुटुम्ब वगैरह मी जीते जीकी माया है।॥ ६ ॥ अर्थ-इन्द्रियोंके विषय, भले नौकरों का समूह तथा घोदे, हाथी, उत्तम रथ वगैरह समी वस्तुएँ इन्द्रधनुष और बिजलीकी तरह चश्नल हैं, पहले दिखाई देते हैं, बाद
मसग जुम्वर्ण ।