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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा०८गजा दन्तिनः रथवराः स्पन्दन श्रेष्ठाः इन्द्रः त एवादिषां ते तथोक्ताः, सर्व समस्ताः दृष्टपणष्टाः पूर्व दृष्टाः पश्चारप्रणष्टाः यथा इन्द्रधनुर्विद्युत् ॥ ७ ॥ पंथे पहिय-जणाणं जह संजोओ हवेई खणमित्तं । बंधु-जणाणं च तहा संजोओ अद्धुओ होई॥ ८॥ छाया-पथि पथिकजनाना यभा संयोगः नतिक्षणमामा बजनगरमा संमेगावः भवति] यथा उदाहरणोपन्यासे, पथि मार्गे पथिकजनानां मार्ग प्राप्तपुरुषाणां संयोगः संश्लेषः क्षणमा खल्पकाल भवेत, तथा पन्धुजनानां पितुमातुपुत्रकळत्रमित्रादीनां संयोगः संबन्धः अननः अनियो भवति ॥ ८ ॥ अइलालिओ वि देहो ण्हाण-सुर्यधेहिँ विविह-भक्खेहिं । खणमित्तेण वि' विहडइ जल-भरिओ आम-घडओ ॥९॥ [छाया-अतिलालितः अपि देहः कानसुगन्धैः चिविधभक्ष्यः क्षणमात्रेण अपि विघटते जलभृतः आमघदः इव ॥] देहः शरीरम् अतिलालितोऽपि अत्यर्थ लालितः पालितः । कैः । स्नानसुगन्धैः मज्जनसुगन्धद्रव्यैः । पुनः केः । विविध. भक्ष्यः अनेकप्रकारभोजनपानादिभिः क्षणमात्रेण अतिस्वल्पकालेन विघटते विनाशमेति । क इत्र । यथा ,जालमृत मामघटः अपकपदः तया देहः ॥९॥ जा सासया ण लच्छी पक्कहराणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बंधे रैई इयर-जणाणं अपुण्णाणं ॥ १० ॥ ािया-या शाश्वता न लक्ष्मीः चक्रधराणामपि पुण्यवताम् । सर कि बनाति रतिम् इतरजनानामपुण्यामाम् ॥] या चक्रधराणामपि चक्रवर्तिनामपि, [अपि- शब्दात् 'अन्येषां नृपाशीना, लक्ष्मीः गजाश्वरथपदासिनिषानरस्लादिसंपदा शाश्वता न भवति । कथंभूतानाम् । पुण्यवतां प्रास्तकर्मोदय प्राप्तानाम् । इतरजनानाम् अन्यपुंसी सा लक्ष्मीः रसिं प्रीति राग बधाति कुरते [ किम् । ] अपितुन । फोरक्षाणाम् । अपुण्यानाम् अप्रशस्तकर्मोदयप्राप्तानाम् ॥ १॥ नष्ट होजाते हैं ॥ भावार्थ-जैसे आकाशमें इन्द्रधनुष और बिजली पहले दिखाई देती है, पीछे तुरन्त ही नष्ट होजाती है, वैसे ही स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके विषय, आज्ञाकारी सेवक तथा अन्य ठाठ-बाट चार दिनों का मेला है ।। ७ । अर्थ-जैसे मार्गमें पथिकजनोंका संग-साथ क्षणभरके लिये होजाता है, वैसे ही बन्धुजनोंका संयोग भी अस्थिर होता है ॥ भावार्थ-यह संसार एक मार्ग है, और उसमें भ्रमण करनेवाले समी प्राणी उसके पथिक हैं। उसमें भ्रमण करते हुए किन्हीं प्राणियोंका परस्परमें साथ होजाता है, जिसे हम सम्बन्ध कहते हैं । उस सम्बन्धके बिछुड़नेपर सब अपने अपने मार्गसे चले जाते हैं । अतः कुटुम्बीजनोंका संयोग पथिकजनोंके संयोगके समान ही अस्थिर है ॥ ८ ॥ अर्थ-सान और सुगंधित द्रव्योंसे तथा अनेक प्रकारके भोजनोंसे लालन-पालन करनेपर भी जलसे भरे हुए को घड़के समान यह शरीर क्षणमात्रमें ही नष्ट होजाता है || भावार्थ-यह शरीर भी अस्थिर है । इसे कितना ही शृङ्गारित करो और पुष्ट करो, किन्तु अन्तमें एक दिन यह मी मिट्टी में मिल जाता है ॥ ९ ॥ अर्थ-जो लक्ष्मी पुण्यशाली चक्रवर्तियोंके भी सदा नहीं रहती, वह भला पुण्यरहित अन्य साधारण जमोंसे प्रेम कैसे कर सकती है ! भावार्थ-चक्रवर्ती और 'अपि' शब्दसे अन्य राजागण बड़े पुण्यशाली होते हैं, किन्तु उनकी मी लक्ष्मी-हाथी, घोड़ा, रथ, प्यादे, कोष, रत्न, बगैरह सम्पदा स्थायी नहीं होती है । ऐसी दशामें जिन साधारण मनुष्योंके पुण्यका उदय ही नहीं है, उनसे वह चंचलालक्ष्मी १पला । २ प हवेर। ३ व य । ४ छ म स ग रई। ५ व विपुग्णाणं ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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