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१. मभिस्यानुरक्षा कथं वि ण रमइ लच्छी कुलीण-धीरे वि पंडिए सूरे।
पुज्जे धम्मिटे वि य सुवास-सुयणे महासत्ते ॥ ११॥ [छाया-पुत्रापि न रमते लक्ष्मीः कुलीनधीरे अपि पण्डिते शूरे। पूज्ये धर्मि अपि च तमुज्ने महासस्वे॥ न रमते न रति गच्छति। का। लक्ष्मीः संपदा । कुत्रापि कस्मिन्नपि पुरुषे । कीरशे। कुलीनधीरे कुलीनः सामकुलजातः धीरः अक्षोभ्यः कुलीनश्वासौ धीरश्च कुलीनधीरः तस्मिन् , अपि पुनः पण्डिते सकलशास्त्रज्ञे शुरे सुभटे पूज्ये जगन्मान्ये धर्मि धर्मकार्यकरणकुशले मुरूपस्खजने सुरूपे कामदेवादिरूपसहिते खजने परोपकारकरणचतुरपुरुषे महासत्त्वे महापराक्रमाकान्तपुरुषे ॥११॥
ता भुंजिबउ लच्छी दिज दाणे दया-पहाणेण ।
जा जल-तरंग-चवला दो तिषिण दिणाई चिढेइ ॥ १२ ॥ [छाया-तावत भुज्यतां लक्ष्मीः दीयर्ता दीन दयाप्रधानेन । या जलतरणचपला विनिदिनानि तिष्ठति ॥1 ता तावत्काल भुज्या भोगविषयीक्रियताम् । का । लक्ष्मीः संपत्। दान वितरण स्यागं दीयता वितीर्यताम् । केन । दयाप्रधानेन रुपापरत्वेन, या लक्ष्मीः द्वित्रिदिनानि द्वित्रिदिवसान चेष्टते तिष्ठति । कथंभूता । जलतराचपला सलिलकलोलबत् चवला ॥ १२॥
जो पुर्ण लच्छिं संचदि ण य भुंजदि णेयं देदि पत्तेसु ।
सो अप्याणं वंचदि मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ॥ १३ ॥ [छाया-यः पुनर्लक्ष्मी संचिनोति न र मुले नैव ददाति पात्रेषु । स आत्मानं वश्चयति मनुजत्वं निष्फलं तस्य ॥] कैसे प्रीति कर सकती है ! सारांश यह है कि जब बड़े बड़े पुण्यशालियोंकी विभूति ही स्थिर नहीं है तब साधारण जनोंकी लक्ष्मीकी तो कथा ही क्या है ? ।। १० । अर्थ-यह लक्ष्मी कुलीन, धैर्यशील, पण्डित, शूरवीर, पूज्य, धर्मात्मा, सुन्दर, सजन, पराक्रमी आदि किसी भी पुरुषमें अनुरक्त नहीं होती ।। भावार्थ-यह लक्ष्मी गुणीजनोंसे भी अनुराग नहीं करती है । सम्भवतः गुणीजन ऐसा सोचें कि हम उत्तम कुलके हैं, धीरजवान हैं, समस्त शास्त्रोंके जाननेवाले हैं, बड़े शूरवीर हैं, संसार हमें पूजता है, हम बड़े धर्मात्मा हैं, हमारा रूप कामदेवके समान है, हम सदा दूसरोंका उपकार करनेमें तत्पर रहते हैं, बड़े पराक्रमी हैं, अतः हमारी लक्ष्मी सदा बनी रहेगी । हमारे पाण्डित्य, शूरवीरता, रूप और पराक्रम वगैरहसे प्रभावित होकर कोई उसे हमसे न छीनेगा । किन्तु ऐना सोचना मूर्खता है; क्योंकि ऐसे पुरुषोंमें भी लक्ष्मीका अनुराग नहीं देखा जाता, वह उन्हें भी छोड़कर चली जाती है ।। ११ ।। अर्थ-यह लक्ष्मी पानीमें उठनेवाली लहरोंके समान चश्चल है, दो तीन दिन तक ठहरनेवाली है । तब तक इसे भोगो और दयाल होकर दाम दो ॥ भावार्थ-जैसे पानीकी लहरें आती और जाती है, बसे ही इस लक्ष्मीकी मी दशा जाननी चाहिये। यह अधिक दिनों तक एक स्थानपर नहीं ठहरती है | अतः जबतक यह बनी हुई है, तब तक इसे खूब भोगो और अच्छे कामोंमें दान दो। यदि ऐसा नहीं करोगे तो यह यों ही नष्ट हो जायेगी। क्यों कि कहा है कि धनकी तीन गति होती हैं-दान दिया जाना, भोग होना और नष्ट होजामा । जो उसे न दूनरोंको देता है और न स्वयं भोगता है, उसके धनकी तीसरी गति होती है । अतः सम्पत्ति पाकर उसका उचित उपयोग करो ॥ १२ ॥ अर्थ-जो मनुष्य
१. कया वि। २ ल मसग सुरूवमुक। ३१ महासुते । ४ बमसग दाण। ५५ दिणाण तिडेर। ३. शु । अच्छी , कम लच्छि, म सबछी। ८५ णे। ९ मणुयचागं ।