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“भगवान तीर्थकर भी बारह भावनाओंके स्वभावका चिन्तन करके संसार, येह एवं भोगसे विरक्त हुए है। ये चिन्तनाएं वैराग्यकी माता हैं । समस्त जीवोंका हित करनेवाली हैं। अनेक दुःखोसे व्याप्त संसारी जीवोंके लिये ये चिन्तनाएँ अति उत्तम शरण है। दुःखरूप अग्निसे संतप्त जीवोंके लिये शीतल पवनके मध्यमें निवासके समान है। परमार्थमार्गको दिखानेवाली है। तत्त्वका निर्णय करानेवाली हैं । सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाली हैं। अशुभ ध्यानका नाश करनेवाली हैं। इन द्वावा चिन्तनाओं के समान इस जीवका हित करनेवाला दूसरा कोई नहीं हैं । घेद्वादशांगका रहस्य है ।"
- श्रीमद् राजचंद्र "कर्मगति विचित्र है । निरन्तर मैत्री, प्रमोव, करुणा और उपेक्षा भावना रखियेगा ।
मैत्री अर्थात् सर्व जगतसे निवरबुद्धि ; प्रमोव अर्थात् किसी भी आत्माके गुण देखकर हर्षित होना; करुणा अर्थात् संसारतापसे दुःखी आत्माके दुःखसे अनुकम्पा आना; और उपेक्षा अर्थात् निःस्पृहभावसे जगतके प्रतिबन्धको भूलकर आत्महितमें आना । ये भावनाएं कल्याणमय और पात्रता देनेवाली हैं।"
--श्रीमद् राजचंद्र
भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविता । भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ॥
गुणभद्र-आत्मानुशासन, २३८
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