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२. मशरणानुप्रेक्षा मन्त्रः, तम् औषधादिकम् , व पुनः, क्षेत्रपालः क्षेत्रप्रतिपालकः कोऽपि सुरः । कम् । मनुष्य नरम् । मपिवादात सुरमसुरं च । कीदृशम् । नियमाणं मरणावस्था प्राप्तम् । तो तर्हि मनुष्याः नराः मक्षयाः क्षयरहिता मरणातीता माविनाशिनः भवन्ति ॥ २५ ॥
अइ-बलिओ वि रउदो मरण-विहीणो ण दीसदे' को वि।
रविवज्जतो वि सया रक्ख-पयारेहिं विविहेहिं ॥२६॥ [छाया-अतिबलिष्ठः अपि रौद्रः मरणबिहीनः न दृश्यते कः अपि । रक्ष्यमाणः अपि सदा रक्षाप्रकारः विविधः।] कोऽपि नरः सुरो का न दश्यते न विलोक्यसे । कीदृक्षः । मरणविहीनः मृत्युरहितः । कीराक्षः । मतियनिष्ठः शतवलसहस्रबललक्षवलकोटिबलादिशक्युिकः । अपिशब्दात् न केवल निलः । रौद्रः भयानका । पुनः करभूतः। सदा सर्वदा रक्ष्यमाणोऽपि, अपिचन्दात् अरक्ष्यमाणोऽपि । कः । विविधः अनेकः रक्षामकाः प्रतिपालनमेदैः गजतुरगसुभटानप्रकारैः मत्रतत्राविमिव ॥ २६ ॥
एवं पेच्छंतो' विहु गह-भूय-पिसाय-जोइणी-जक्लं ।
सरणं भज्णई मूढो सुगाढ-मिच्छस-भावादो ॥२७॥ [छाया-एवं पश्यन्नपि खलु गृहभूतपिशाचयोगिनीयक्षम् । शरण मन्यते मूढः सुगाढमिथ्यात्वभाषातू मन्यते जानाति । कः । मूढोअज्ञानी मोही च । किम् । शरणं श्रियते भार्तिपीडितेनेति शरणम्। किम् । प्रहभूतपिशार. योगिनीयई, प्रहाः आदिस्यसोममालबुधवृहस्पतिशुक्रशनिराहुकेतवः, भूता भ्यन्तरदेवनिशेषाः, पिशाबासपा योगिन्यः चण्डिकादयः, यक्षा मणिभवादयः, द्वन्तः शेषां समाहारः ग्रहभूतपिशाचयोगिनीयक्षम् । कृतः सुगावमिथ्यात्वभावात् , अंगालम् अत्ययं मयास्वरूपानातहु स्फुटम् । कोहशः । एवं पूर्वोकमशरणं पश्यपि प्रेक्षमाणोऽपि ॥२७॥
अपने प्रियजनोंकी रक्षाके लिये देवी-देवताओंकी मनौती करते हैं। कोई महामृत्युञ्जय आदि मंत्रोंका जप करवाते हैं। कोई टोटका करवाते हैं। कोई क्षेत्रपालको पूजते हैं। कोई राजाकी सेवा करते है। किन्तु प्रन्थकार कहते हैं, कि उनकी ये सब चेष्टाएँ व्यर्थ हैं, क्योंकि इनमें से कोई मी उन्हें मृत्युके मुखसे नहीं बचा सकता । यदि ऐसा होता तो सब मनुष्य अमर होजाते, किसी न किसीके शरणमें जाकर सभी अपनी प्राणरक्षा कर लेते ॥ २५ ॥ अर्थ-अस्थन्त बलशाली, भयानक, और रक्षा के अनेक उपायोंसे सदा सुरक्षित होते हुए भी कोई ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता, जिसका मरण न होता हो । भावार्थ-कोई कितना ही बलशाली हो, कितना ही भयानक हो, और सदा अपनी रक्षाके लिये हाथी, घोरे, तीर, तलवार, मंत्र, तंत्र आदि कितने ही रक्षाके उपायोंसे सुसज्जित रहता हो, किन्तु मृत्युसे बचते हुए किसीको नहीं देखा ॥ २६ ॥ अर्थ-ऐसा देखते हुए मी मूद जीव प्रबल मिथ्यावके प्रभाबसे प्रह, भूत, पिशाच, योगिनी और यक्षको शरण मानता है ।। भावार्थ-मनुष्य देखता है, कि संसारमें कोई शरण नहीं है एक दिन समीको मृत्युके मुखमें जाना पड़ता है, इस विपत्तिसे उसे कोई भी नहीं बचा सकता है फिर भी उसकी आत्मामें मिथ्यात्वका ऐसा प्रबल उदय है, कि उसके प्रभावसे वह अरिष्ट निवारणके लिये ज्योतिषियोंके चक्कर में फंस जाता है, और सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, और केतु नामके ग्रहोंको तथा भूत, पिशाच, चण्डिका
लम सग दीसए। २.पिच्छतो। इस भूइपिसा।। ४ग मन्त्रा।