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________________ १४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा०२४आउ-क्खएण मरणं आउं दार ण सकदे को वि। तम्हा देविंदो वि य मरणाउ ण रक्खदे को वि ॥ २८ ॥ [छाया-आयुःक्षयेण मरणम् श्रायुः दातुं न शक्नोति कः अपि । तस्मात् देवेन्द्रः अपि च मरणात् न रक्षति का भपि॥] यस्मादिखध्याहार्यमू। मायुःक्षण मायुष्कर्मणः क्षयेण विनाशेन मरण पश्चार्य भवेत् । कोऽपि इन्द्रो पा मरेनोबा भायुः जीवितम्य दाद वितरित न शक्नोति समर्थों न भवति । तस्मात्कारणात, अपि च विशेषे, कोऽपि देवेन्द्रः सुरपतिवो मरणात् मूल्योः न रक्षति नावति ॥ २८॥ अप्पाणं पिघवंत' जह सक्कदि रविखदुं सुरिंदो वि । तो किं छंडदि सगं सन्बुत्तम-भोय-संजुः ॥ २९ ॥ [छाया-आत्मानमपि च्यवन्त यदि दानोति रक्षितुं सुरेन्द्रः अपि । तत् किं त्यजति स्वर्ग सलिमभोगसंयुतम् ॥] अपि च पुन:, यदि चेत् सुरेन्द्रोऽपि देवलोकपतिः न केवलमन्यः, भात्मानमपि, मपिशब्दात् अन्यमपि च्यवन्त खर्गाविपतितं, रक्षित पालयितुं शक: समयों भवति, तो तर्हि स्वर्ग देवलोकम् इन्द्रः किं कर्य त्यजति मुथति। कीरक्ष तमू सर्वोत्तमभोगसंयुक्त सर्वोत्कृतभोग्यदेवी विमानक्रियादिसमुद्भवास्तैः संयुक्त सहितम् ॥१९॥ - -- -- वगैरह न्यन्तरोंको शरण मानकर उनकी आराधना करता है ॥ २७ ॥ अर्थ-आयुके क्षयसे मरण होता है, और आयु देनेके लिये कोई मी समर्थ नहीं है। अतः देवोंका खामी इन्द्र मी मरणसे नहीं बचा सकता है || भावार्थ-अभीतक ग्रन्थकार यही कहते आये थे, कि मरणसे कोई नहीं बचा सकता । किन्तु उसका वास्तविक कारण उन्होंने नहीं बतलाया था। यहाँ उन्होंने उसका कारण बतलाया है। उनका कहना है, कि आयुफर्मके समाप्त होजानेसे ही मरण होता है, जबतक आयुकर्म बाकी है, तबतक कोई किसीको मार नहीं सकता। अतः प्राणीका जीवन आयुफर्मके आधीन है। किन्तु आयुका दान करनेकी शक्ति किसीमें भी नहीं है क्योंकि उसका बन्ध तो पहले भवमें स्वयं जीत्र ही करता है। पहले भत्रमें जिस गतिको जितनी आयु बँध जाती है, आगामी भवमें उस प्रतिमें जन्म लेकर जीव उतने ही समयतक ठहरा रहता है। बंधी हुई आयुमें घट-बढ़ उसी भवमें हो सकती है, जिस मत्रमें वह बाँधी गई है। नया जन्म ले लेनेके बाद वह चढ़ तो सकती ही नहीं, घट जरूर सकती है | किन्तु घटना मी मनुष्य और तिर्यवाति में ही संभव है, क्योंकि इन दोनों गतियों में अकालमरण हो सकता है। किन्तु देवगति और नरकगतिमें अकालमरण भी नहीं होसकता, अतः वहाँ आयु घट भी नहीं सकती | शहा- यदि आयु बढ़ नहीं सकती तो मनुष्यों का मूत्युके मयसे औषधी सेवन करना भी ध्यर्य है। समाधान-ऊपर बतलाया गया है, कि मनुष्यगतिमें अकालमरण हो सकता है । अतः औषधीका सेवन आयुको बढ़ानेके लिये नहीं किया जाता, किन्तु होसकनेवाले अकालमरणको रोकनेके लिये किया जाता है । अतः मृत्युसे कोई मी नहीं बचा सकता ।। २८ ।। अर्थ- यदि देवोंका स्वामी इन्द्र मरणसे अपनी भी रक्षा करनेमें समर्थ होता तो सबसे उत्तम भोगसामग्रीसे युक्त वर्गको क्यों छोड़ता। भावार्थ-दूसरोंको मृत्युसे बचानेकी तो बात ही दूर है । किन्तु १लग। २व चवंतो। किमपि च्यवन्तं । बरखियं, ग रक्खिदो। ४ ग छरिदि। ५ल अपि न पुनः। ६अन्यत्र
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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