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________________ -३१] २. अशरणानुप्रेक्षा दसण-णाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए । अण्णं किं पिण सरणं संसारे संसरंताणं ॥ ३० ॥ [छाया-दर्शनशानचारिनं शरणं सेवध्वं परमेश्रद्धगा । अन्यत् किमपि न शरणं संसारे संसरताम् ॥] हे भव्य इलथ्याहार्यम् , परमश्रद्धया सर्वोत्कृष्टपरिणामेन सेवरू भजस्व । किम् । दर्शनशानचारित्रं शरणं म्यवहारनिश्चयसम्यम्पर्शनशानचारित्रं शरणं, संसारे भवे संसरतां भ्रमतां जीवानाम् अन्यत् किमपि न शरणम् आश्रयः ॥ ३० ॥ अप्पा ण पि य सरणं खमादि-भावेहि परिणदो' होदि । तिष-कसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥ ३१॥ [छाया-आस्मा ननु अपि च शरण क्षमादिभावैः परिणतः भवति । तीवकषायाविष्टः आत्मानं इन्ति आत्मना ॥] भवति क्षमादिभावः उत्तमक्षमादिखमावैः परिणतम् एकत्वभावं गतम् आत्मानं खखरूपम् , अपि एवकारा, संशरणम् भाश्रयः । व पुनः, तीनकषायायिष्टः तीनकषाया अनम्तानुबन्धिक्रोधादयः तेराविष्टः युक्तः हन्ति हिनस्ति । कम् मात्मानं खखरूपम् । केन । आत्मना खखरूपेण ॥३१॥ स जयतु शुभचन्द्रचन्द्रवरसाकलापः समतसुमांतकोतिः सन्भातः सत्पशेयः। प्रतपतु तपनातेस्तापकः खात्मवेत्ता हरख भव समुत्या वेदना वेदनाव्यः । इति श्रीस्वामिकार्तिकेयामुप्रेक्षायानिविश्वविद्याधरझापाकषि चक्रवर्तिभट्टारकश्रीशुभचन्द्रदेव विरचितटीकायाम् भशरणानुप्रेक्षायां द्वितीयोऽधिकारः ॥ २॥ इन्द्र अपनेको भी मृत्युसे नहीं बचा सकता । यदि वह ऐसा कर सकता तो कभी मी उस स्थानको न छोड़ता, जहाँ संसारके उत्तमसे उत्तम सुख भोगनेको मिलते हैं, जिन्हें प्राप्त करनेके लिये संसारके प्राणी लालायित रहते हैं ॥ २९ ।। अर्थ-हे भव्य ! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र शरण हैं। परम श्रद्धाके साथ उन्हींका सेवन कर । संसारमें भ्रमण करते हुए जीत्रोंको उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है। भावार्थ-संसारकी अशरणताका चित्रण करके ग्रन्थकार कहते हैं, कि संसारमें यदि कोई शरण हैं तो व्यवहार और निश्चयरूप सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र है । अतः प्रत्येक भव्यको उन्हींका सेवन करना चाहिये । जीव, अजीव आदि तत्वोंका श्रद्धान करना व्यवहारसम्यक्त्व है, और व्यवहारसम्यक्त्वके द्वारा साधने योग्य वीतरागसम्यक्त्वको निश्चयसम्यक्त्व कहते हैं। आत्माके और परपदार्योंके संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित ज्ञानको व्यवहारसम्यग्ज्ञान कहते हैं, और अपने खरूपके निर्विकल्य रूपसे जाननेको अर्थात् निर्विकल्पस संवेदनज्ञानको निश्चयज्ञान कहते हैं । अशुभ कार्योंसे निवृत्त होना और शुभकार्योमें प्रवृत्त होना व्यवहार सम्यक्चारित्र है, और संसारके कारणों को नष्ट करनेके लिये ज्ञानीके बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग क्रियाओंके रोकनेको निश्चयचारित्र कहते हैं॥ ३० ॥ अर्थ-आत्माको उत्तम क्षमा आदि भावोंसे युक्त करना मी शरण है । जिसकी कषाय तीन होती है, वह स्वयं अपना ही घात करता है ।। भावार्थ-संसारके मूद आणी शरीरको ही आत्मा समझकर उसकी रक्षाके लिये शरणकी खोजमें भटकते फिरते हैं । किन्तु १० म सग सेबेहि । २ सय परिण। ३ म गाथाके अन्त में 'श्रसरणानुप्रेक्षा॥२॥ ४ स्वरूपम् ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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