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________________ १८ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३६द्वितीयं शारीरे शरीरे देहे छेदन मेदनादिभवम् । तथा मानसे मनति भवम् । विविधम् अनेकप्रकार क्षेत्रोद्रवं भूमिस्पर्श श्रीतोष्णवातवेतरणीमज्जनशाल्मलीपनपातकुम्भीपाकादिभवम् । च पुनः [तीन ] दुःसहं सोमशक्यम् अन्योन्यकृत नारकैः परस्परं शूलारोपणकुन्तखनच्छेदनाविकृतं निष्पादितम् । च-शब्दः समुपयार्थे ॥ ३५।। छिन्नइ तिल-तिल-मितं भिंदिज्जइ तिल-तिलंतरं सयलं । वजरंगी' कढिज्जइ णिहप्पए पूय-कुंडम्हि ॥ ३६॥ [छाया-छिद्यते तिलतिलमान भिद्यते तिलतिलान्तरं सकलम् । बजामिना कथ्यते निधीयते पूतिकुण्डे ॥] छिद्यते स्वण्डी क्रियते शरीरं तिलतिलमात्र तिलतिलप्रमाणखण्डम्, भियने विदार्यते सकलं तरीमतिशयेन समस्त तिलतिलम् । पूर्व तिलतिलमाग्नं कृतं तदपि पुनः पुनः छिद्यते । कदिजइ ध्यते पच्यते, कथ् निष्पाके, अस्य धातोः प्रयोगः । क। वजामौ वज्ररूपवैश्वानरे निक्षिप्यते प्रक्षेपः क्रियते 1 का पूयकुण्डे ॥ ३६॥ इञ्चेवमाइ-दुक्ख ज णरए सहदि एय-समयम्हि । तं सयलं वण्णेदुं ण सकदे सहस-जीहो वि ॥ ३७॥ दूसरोंको लड़ाने भिड़ानेमें बड़ा आनन्द आता है। ये तीसरे नरकतक जा सकते हैं । वहाँ जाकर ये नारकियोंको अनेक तरहका कष्ट देते हैं और उन्हें लड़ने झगड़नेके लिये उकसाते हैं। एक तो वे यों ही आपसमें मारते काटते रहते हैं, उसपर इनके उकसानो क्रोध और कथा तर दे अपनी विक्रियाशक्तिके द्वारा बनाये गये भाला तलवार आदि शस्खोंसे परस्परमें मार-काट करने लगते हैं। इससे उनके शरीरके टुकड़े टुकड़े होजाते हैं, किन्तु बादको वे टुकड़े पारेकी तरह आपसमें पुनः मिल जाते हैं । अनेक प्रकारकी शारीरिक वेदना होनेपर भी उनका अकालमें मरण नहीं होता । कामी कमी वे सोचते हैं, कि हम न लड़ें, किन्तु समयपर उन्हें उसका कुछ भी ध्यान नहीं रहता । इस लिये भी उनका मन बड़ा खेदखिन्न रहता है । इन दुःखोंके सिवाय उन्हें नरकके क्षेत्रके कारण भी बहुत दुःख सहना पडता है । क्योंकि ऊपरके नरक अत्यन्त गर्म है तथा पाँचवें नरकका नीचेके कुछ भाग, छटे तथा सातवें नरक अत्यन्त ठंडे हैं। उनकी गर्मी और सर्दीका अनुमान इससे ही किया जा सकता है, यदि सुमेरुपर्वतके बराबर ताम्बेके एक पहाड़को गर्म नस्कोंमें डाल दिया जाये तो वह क्षणभरमें पिघलकर पानीसा होसकता है । तथा उस पिघले हुए पहाइको यदि शीत नरकोंमें डाल दिया जाये तो वह क्षणभरमें कड़ा होकर पहलेके जैसा हो सकता है । इसके सिवाय वहाँकी घास सुईकी तरह नुकीली होती है । वृक्षोंके पत्ते तलवारकी तरह पैने होते हैं। वैतरणी नामकी नदी खून, पीव जैसी दुर्गन्धित वस्तुओंसे परिपूर्ण होती है । उसमें अनेक प्रकारके कीड़े बिलबिलाते रहते हैं। जब कोई नारकी उम वृक्षोंके नीचे विश्राम करनेके लिये पहुँचता है तो हवाके झोकेसे वृक्षके हिलते ही उसके तीक्ष्ण पत्ते नीचे गिर पड़ते हैं और विश्राम करनेवालेके शरीरमें घुस जाते हैं । वहाँसे भागकर शीतल जलकी इच्छासे वह नदीमें घुसता है, तो दुर्गन्वित पीव और कीड़ोंका कष्ट भोगना पड़ता है । इस प्रकार नरकमें पाँच प्रकारका दुःख पाया जाता है ।। ३५|| अर्थ-शरीरके तिल तिल बराबर टुकड़े कर दिये जाते हैं । उन तिल तिल बराबर टुकड़ोंको भी मेदा जाता है । वज्राग्निमें पकाया जाता है। पीवके कुण्डमें फेंक दिया जाता है ॥ ३६॥ अर्थ-इस प्रकार नरकमें छेदन-भेदन आदिका जो दुःख १५ बजग्गिा । २५ कुटमि, स कुंडम्मि। बनिर! ४व समियंमि, म समयमि(१) ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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