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________________ -३५] ३. संसारानुप्रेक्षा कथ्यते। कभूतस्य जीवस्य । मिथ्यात्मकषायैर्युक्तस्य, मिथ्यात्वं नास्तिकता कषायाः क्रोधादयस्तैः संयुकस्य । एवं कथम् । आत्मा त्यति मुमति । किम् । एक शरीर पूर्वकोपात शरीरम् । अन्यत् अपरं उत्तरभवसंपन्धि नवं नवं भने भने नाई नूतनं गानि वीडरोनि, एनः पुनः अत्यदन्यत् शरीर बहुवारं गृहाति मुञ्चति च ॥ ३२-३३ ॥ अथ नरकगती महदुःख गाथाषट्रेनोट्टीकले पाव-उदयेण' णरए जायदि जीयो सहेदि बहु-दुक्खं । पंच-पयारं विविहं अणोवमं अण्ण-दुक्खेहिं ॥ ३४ ॥ [छाया-पापोदयेन मरके जायते जीयः सहते महुदुःखम् । पञ्चप्रकारे विविधमनौपम्यमन्यदुःखैः ॥] जायते मृत्पद्यते। कः। जीवः संसार्यारमा। क। नरके सप्तनरके। केन । पापोदयेन अशुभकोदयेन । तश घोक्तम्-'जो पायइ सत्ताई अलियं बपेड़ परधणं इरइ । परवार चिय बबह रहुपावपरिगहासत्तो ॥ पंडो माणी पदोमायादी णिदुरो सरो पायो। पिसुनो संगहसीलो साहूर्ण शिंदो अहमोआलप्पालपसंगी दुटो बुद्धौएँ जो कमायो य । बहुदुक्खसोगपतरे मरिर्ड परयम्मि सो जाइ'. सहते क्षमते । किम् । बहुदुःख तीव्रतरमशर्म । कियाप्रकारम् । पत्रकारम् असुरोशरितादिपञ्चमेदं, विविधम् अनेकप्रकारम्, अन्य दुःखः अन्येषां तिर्यगावीनो दुःखैरनुपमम् उपमातिकान्तम् ॥ ३४ ॥ अथ तान् पकप्रकारान् व्याकरोति असुरोदीरिय-दुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं । खित्तुभवं च तिचं अण्णोण्ण-कयं च पंचविहं ॥ ३५ ॥ [छाया-असुरोवीरितदुःखं शारीरे मानस तथा विविधम् । क्षेत्रोद्यं च तीवम् अन्योन्यकृतं च पञ्चविधम् ॥] एतत्पश्चप्रकार दुःखम् । एकम् असुरोतीरितःखम् असुरैरमरकुमारेस्टीरितं प्रकटीकृत तच तदुःख य असुरोणरितदुःखम् । करते हुए ग्रन्थकारने पहले संसारका स्वरूप बतलाया है। बार बार जन्म लेने और मरनेको संसार कहते हैं। अर्थात्, जन्म और मरणके चक्रमें पड़कर जीवका भ्रमण करना ही संसार है। यह संसार चार गतिरूप है और उसका कारण मिथ्यात्व और कषाय हैं । मिथ्यात्व और कषायका नाश होनेपर जीवकी इस संसारसे मुक्ति होजाती है ।। ३२-३३ ॥ अब छह गाथाओंसे चार गतियोंमेंसे पहले नरकगतिके दुःखोंका वर्णन करते हैं। अर्थ-पापकर्मके उदयसे यह जीव नरकमें जन्म लेता है, और वह पाँच प्रकारके अनेक दुःखोंको सहता है, जिनकी उपमा अन्य गतियोंके दुःखोंसे नहीं दी जा सकती ॥ भावार्थ-शामें कहा है, कि जो प्राणियोंका घात करता है, झूठ बोलता है, दूसरोंका धन हरता है, परनारियोंको बुरी निगाहसे देखता है, परिग्रहमें आसक्त रहता है, बहुत क्रोधी, मानी, कपटी और लालची होता है, कठोर वचन बोलता है, दूसरोंकी चुगली करता है, रात-दिन धनसञ्चयमें लगा रहता है, साधुओंकी निन्दा करता है, वह नीच और खोटी बुद्धिवाला है, कृतघ्नी है, और बात बातपर शोक तथा दुःख करना जिसका स्वभाव है, वह जीव मरकर नरकगतिमें जन्म लेता है | वहाँ उसे ऐसे ऐसे कष्ट सहने पड़ते हैं, जिनकी तुलना किसी अन्य गतिके कठोंसे नहीं की जा सकती || ३४ ॥ अब दुःखके पाँच प्रकारोंको बतलाते है । अर्थ-पहला असुरकुमारोके द्वारा दिया गया दुःख, दूसरा शारीरिक दुःख, तीसरा मानसिक दुःख, चौथा क्षेत्रसे उत्पन्न होनेवाला अनेक प्रकारका दुःख और पाँचवाँ परस्परमें दिया गया दुःख, दुःखके ये पाँच प्रकार हैं | भावार्थ-भयनवासी देवोंमें एक असुरकुमारजातिके देव होते हैं। ये बड़े कलहप्रिय होते हैं । इन्हें १लमग पाउदवेण, सपाओवपण। २ अनोवमं अर। 8मसग अण्णुण्ण । काफिके. ३
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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