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________________ . . ६. मशुचित्यानुप्रेक्षा ६. अशुचित्वानुपेक्षा भथ गाथाषट्रेनाशुवित्वानुप्रेक्षा सूचयति सयल-कुहियाण पिंडं किमि-कुल-कलियं अउब-दुग्गंध । मल-मुत्ताण य गेहं देहं जाणेहि असुश्मयं ॥ ८ ॥ [छाया-सकलकुथिताना पिणे मिकुलकलितमपूर्वदुर्गन्धम्। मलमूत्राणां च गेई देहं जानीहि अशुचिमयम् ॥] जानीहि त्वं, हे मध्य प्रतीहि । कम् । देई शरीरम् । किंभूतम् । अशुचिमयम् अपविनद्रव्यनिष्पादितम् । रक्षम् । सकलकथिताना पिण्ड समस्तकुरिसताना द्रव्याणां निचयम् । पुनः कीरक्षम् । क्रिमिकुलकलित, किमयः जठरजदौन्दियजीवाः जन्तवः यूकादयः निगोदादयः तेषां कुलानि वृन्दानि तैः कलित युक्तम् । अतीवदुर्गन्धम् । मलमूत्राणां गृहमला विधादयः मुत्राणि प्रक्षषादयस्तेषां गृहं स्थानम् ॥ तथा श्रीभगवस्याराधनायो शरीरस्य निष्पत्त्यादिकं प्रोक्तंचातयक्षा। किलिल. कलुष,१. स्थिरत्व १. पृथादशाहेन बुहुदोऽथ पनः । तदनु ततः पलपेश्यः क्रमेण मासेन पुलकमतः ॥१॥ धुर्मनखरोमसिद्धेः स्यादपाशसिदिक्षास्पन्दनमष्टममासे नवमेदशमेऽथ निस्सरणम् '२॥कछिल। कसुषीकृतं (दिन १०) पांसुरससहर्श दिन १०, स्थिरभूतं दिन १०, मास १ । युद्धदभूतं मात धनभूत मास । मांसपेशी मास १ । पञ्चपुलकानि मास १ । आफ्रोपालानि मास १ । चर्मनखरोमनिष्पत्तिः मास ।चलनम् । मासे नयमे निर्गमनम् ॥ शरीरस्य अवयवानाचरे । त्रिशतारी परमि१.०, मारि स जावातिन सस्थति संधयः ३०० । सायनां नवशतानि ९.० । शिराणा सप्तशतानि ७०० 1 पञ्चशतानि मांसपेश्यः ५.. । यस्वारि शिराजालानि । षोडशससंझानि १६ । शिरामूलानि षदेव ६ । मांसरजुवयं २ । स्वचः सप्त । कायानि सप्त • । रोमकोटीनामशीविशतसम्माणि 4.10......... | आमाशये अवस्थिता अप्रयष्टयः षोडश १ । आत्माके भिन्न चिन्तन करनेको अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते हैं । अन्यत्वका चिन्तन करते हुए मी यदि यथार्थमें भेदज्ञान न हुआ तो वह चिन्तन कार्यकारी नहीं है ।। ८२ ॥ इति अन्यत्वानुप्रेक्षा ॥५॥ छह गाथाओंसे अशुचित्यअनुप्रेक्षाका सूचन करते हैं। अर्थ-इस शरीरको अपवित्र द्रव्योंसे बना हुआ जानो। क्योंकि यह शरीर समस्त बुरी वस्तुओंका समूह है। उदरमें उत्पन्न होनेवाले दोइन्द्रिय लट, जू तथा निगोदियाजीवोंके समूहसे भरा हुआ है, अत्यन्त दुर्गन्धमय है, तया मल और मूत्रका घर है ॥ भावार्थ-श्रीमगवतीआराधनाम गाथा १००७ से शरीरकी उत्पत्ति वगैरह इस प्रकार बतलाई है-"गर्भमें दस दिनतक वीर्य कलल अवस्थामें रहता है । अर्थात् गले हुए ताम्बे और चाँदीको परस्परमें मिलानेसे उन दोनोंकी जो अवस्था होती है, वैसी ही अवस्था माताके रज और पिताके वीर्यके मिलनेसे होती है । उसे ही कलल अवस्था कहते हैं । उसके पश्चात् दस दिनतक यह काला रहता है। उसके पश्चात् दस दिनतक स्थिर रहता है । इस प्रकार प्रथम भासमें रज और वीर्यके मिलनेसे ये तीन अवस्थाएँ होती हैं। दूसरे मासमें बुलबुलेकी तरह रहता है । तीसरे मासमें कड़ा होजाता है । चौथे मासमें मांसका पिण्ड होजाता है । पाँचवें नासमें हाथ, पैर और सिरके स्थानमें पाँच अर फूटते हैं । छठे मासमें अङ्ग और उपाङ्ग बन जाते हैं । सातवें मासमें चम्बा, रोम और नाखून बन जाते हैं । आठवें मासमें बच्चा पेटमें घूमने लगता है । नवें अथवा दसवें मासमें बाहर आजाता है।" शरीरके अवयव इस प्रकार हैं-"इस शरीर में तीनसौ हड़ियाँ हैं । वे सभी मज्जा नामकी धातुसे भरी हुई हैं। तीन सौ ही सन्धियाँ हैं । नौसौ स्वायु हैं । सात सौ सिराएँ है १मस जाणे, गजाह ममम । अधिक.६
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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