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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०८४कृषितस्याश्रयाः ससव भवन्ति । स्थूणाः तिक्षो भवन्ति ।। ममणां शतं सताधिकं १०७ भवति। व्रणमुखानि गव भवन्ति ५, नित्य कुथित नवन्ति यानि । मस्तिष्क सालिप्रमाणं, मेदोऽअलिप्रमाणम् , ओजो निजामलिप्रमाणे, शुक्र खाललिप्रमाण, घसा धातवः तितोऽन्जलयः, पित्तामलित्रिक ३, ष्मामलित्रिकं३ । रुधिरै सेर ८, मूत्र सेर १६, विष्टा सेर २४ । नख २०, दन्ताः ३२ । 'क्रिमिफीटनिगोदादिभिर्भुतमिदं शरीरम् । रसा १ ऽभूत् २ मांस ३ भेदो ४ ऽस्थि ५ मजा ६ शुक्राणि ७ धातवः ॥' सप्तधातुभिर्निष्पनम् ॥ ८ ॥ सुट्ट पवित्तं दधं सरस-सुगंध मणोहरं जं पि । देह-णिहित्तं जायदि घिणावणं सुट्ट दुग्गंधं ।। ८४ ॥ छाया-सुष्टु पचित्रं द्रव्यं सरससुगन्धं मनोहरं यदपि। देहनिहितं जायते धृणास्पदं सुष्ठु दुर्गन्धम् ॥] यदपि द्रन्य चन्दनकर्पूरागरूकस्तूरीसुगन्धपुष्पप्रमुखम् । कीरक्षम् । मुष्ठ अतिशयेन पवित्रं शुचिः कीदक्ष पुनः । सरससुगन्धम् अपूर्वरसगन्धसहितम् अस्मानादि, मनोहर घेतक्षमत्कारकम, तदपि द्रब्य देहृनिक्षित शरीरसंस्पृष्टं जायते भवति । कीदृक्षम् । घृणास्पदं सूगोत्पादकं [जुगुप्सोत्पादक ], मुष्ठ अतिशयेन दुर्गन्धं पूतिगन्धम् ॥ ८४ ॥ मणुयाणं असुइमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण । तेर्सि विरमण-कज्जे ते पुण तत्थेवे अणुरता ॥८५॥ [छाया-मनुजानामशुप्पिमय विधिना देई विनिर्मित जानीहि न तेषां विरमणकार्ये ते पुनः तत्रैव अनुरक्ताः॥] जाण जानीहि, मनुष्याणां देह शरीरे विधिना पूचोपार्जितकर्मणा अशुधिमयम् अपवित्रतामयं विनिर्मितं निष्पावितम् । तेषां मनुष्याणां विरमणकायें वैराग्योत्पत्तिनिर्मित पुनः ते मनुष्याः तत्रैव शरीरे अनुरक्ताः प्रेमसंबद्धाः ॥८५॥ एवंविहं पि देह पिच्छता वि य कुगति अणुराय । सेवंति आयरेण य अलख-पुष्वं ति मण्णंता ॥८६॥ पाँच सौ मांसपेशियाँ हैं । सिराओंके चार समूह हैं । रक्तसे भरी १६ महासिराएँ हैं। सिराओंके छह : मूल हैं। पीठ और उदरकी ओर दो मांसरजु हैं । चर्मके सात परत हैं । सात कालेयक अर्थात् मांस .. खण्ड हैं । अस्सी लाख करोड़ रोम हैं । आमाशयमें सोलह आँतें हैं। सात दुर्गन्धके आश्रय हैं। तीन स्थूणा हैं-बात, पित्त और कफ ! एक सौ सात मर्मस्थान हैं। नौ मलद्वार हैं, जिनसे सर्वदा मल बहता रहता है। एक अञ्जलि प्रमाण मस्तक है। एक अखलिप्रमाण मेद है। एक अस्खलिप्रमाण ओज है। एक अञ्जलिप्रमाण वीर्य है। ये अनलियाँ अपनी अपनी ही लेनी चाहिये । तीन अञ्जलिप्रमाण वसा है। तीन अमलिप्रमाण पित्त है। [भगवती० में पित्त और कफको ६-६ अञ्जलिप्रमाण बतलाया है । देखो, गा० १०३४ । अनु० । ८ सेर रुधिर है। १६ सेर मूत्र है। २४ सेर विष्ठा है । बीस नख हैं । ३२ दाँत हैं। यह शरीर कृमि, लट तया निगोदिया जीवोंसे भरा हुआ है। तथा रस, रुधिर, माँस, मेद, हड़ी, मज्जा और वीर्य इन सात धातुओंसे बना हुआ है । अतः गन्दगीका घर है ।। ८३ ॥ अर्थ-जो द्रव्य अत्यन्त पवित्र, अपूर्व रस और गंध से युक्त, तथा चित्तको हरनेवाले हैं, वे द्रव्य भी देहमें लगनेपर अति विनावने तथा अति दुर्गन्धयुक्त होजाते हैं। भावार्थ-चन्दन, कपूर, अगरु, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प वगैरह पवित्र और सुगन्धित द्रव्य भी शरीरमें लगनेसे दुर्गन्धयुक्त होजाते हैं ।। ८४ ॥ अर्थ-मनुष्योंको विरक्त करनेके लिये ही विधिने मनुष्योंके शरीरको अपवित्र बनाया है, ऐसा प्रतीत होता है । किन्तु वे उसीमें अनुरक्त हैं ॥ ८५॥ अर्थ-शरीरको इस प्रकारका देखते हुए भी मनुष्य उसमें अनुराग करते हैं । और मानों इससे पहले १५ () । म स मशुमा । ३ व विणिम्मिद [1]। पुशु तित्लेव । ५म पुन सि, म सेन ति! . ..
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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