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________________ २३४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४४६ भोक्ष्ये, ओदनं चा प्रहीष्यामि शाकालमिदं मिलिष्यति तदा भोक्ष्ये नान्यत् चणकालमुद्रमा मसूरिकावीनि मानि भक्ष्यामीति नान्यत् यदेवमाद्यवग्रहं तत्सचे वृत्ति परिसंख्यानमिति । तथा "वसम्म दायरस य अवग्गहो बहुविहो ससत्तीए । देवमादिविधिणाणादय्वा कुत्तिपरिसंखा ॥” इति ॥ ४४५ || अथ परियातपोविधानगाह संसार- दुक्ख तो विस-सम-विसयं' विचितमाणो जो । नीरस - भोज भुंजइ रस-चाओ तस्स मुविसुद्धो ॥ ४४६ ॥ भवउपप्र [ छाया - संसारदुःखत्रस्तः विश्वसमविषय विचिन्तयन् यः । गीरसभोज्यं रसत्यागः तस्य सुद्रिः ॥ ] तस्म भिक्षोः रसत्यागः स्वशरीरेन्द्रियरामादिवद्विकरग्भदविधृतगुडतैलादिरसाना लागः व्यजनं रसपरिलागः स्याभिलषितस्निग्धमधुराम्लकटुकादिर सपरिहारो वा रसत्यागः । घृतादिरसानां क्रमेण युगपद्वा यजनं चतुर्थ रसपरित्यागा तपो भवेत् । कथंभूतो रसत्यागः । सुविशुद्धः मिश्रादिदोषरहितः । तस्य कस्य । यः भिक्षुः मुझे असे अश्नाति मति । किं तत् । नीर भोज्यं रसरहितं भोजनमाहारै दुग्धदधिघृततैलेरवणरहिनं भोज्यम् धृतपूरल फसायादिरहितं रसर्ससृष्टसूपाधूपशाकपाकपक्कान्नव टकमण्डकादिरहितं तिक्तकटुकषायाम्ल मधुररसर रहेन भोजन । उक्तं च मूलाचारे । “लीरदधिसपितेलं गुडलवणाणं च परिचयणं । तित्तकटुकसार्थमिळमधुरराणं च जं चणे ॥” इति । कीि भिक्षुः सन् । संसारदुःखत्रस्तः चतुर्गतिलक्षणसंसारदुःखात त्राएं संत्रास भयं गच्छन पक्षसंसारदुः सेभ्यः सीहः कातरः कम्पितदेहो वा । अपि पुनः किंभूतः साधुः । विषमविषयं विचिन्तयम् हाला कूट विष न्द्रयाणां सप्तविंशत्तिविषयान् चिन्तयन् स्मरन् । रसपरित्यागिना तपखिना तर्हि कीदा भोजन भोतव्यम्। "अरसं अवेलाको न्य व । भयंबिलमायामोदणं च विगोदणं चेन ॥" असं स्वादरहितम्, अन्यवेला वेला सरकृताम् शुद्धोदन केनचित् अमिश्रम, रूक्ष निग्धतारहितम् आचाम्लमसंस्कृतसौवीर मिश्रम्, आचाम्लोदनं भरलं विक्यान्यं विदन्ति । सहितं इत्यन्ये । विगडोदनम् अतीव तीमपक्रम उष्णोदकसन्निश्राश्रम् इत्यपरे । लवः किमर्थं रसत्यागः । दान्तेन्द्रि त्वं तेजोहानिः संयमः अतिचारादिदोषनिश्वभिदाय ॥ तथा भोज्यका प्रमाण करना कि आज प्रातुक यवान मिलेगा तो भोजन करूंगा, अन्यथा नहीं करूँगा, या प्रासुक मांड, या शाक या भात मिलेगा तो भोजन करूंगा, अन्यथा नहीं करूंगा | इस प्रकार संकल्प करने को वृत्तिपरिसंख्यान कहते हैं ।' संकल्प के अनुसार भोजनका योग मिलना दैवाधीन है । अतः यह बड़ा कठिन तप हैं || ४४५ ॥ आगे एसपरित्याग तपको कहते हैं । अर्थ- संसारके दु. से संतप्त जो मुनि इन्द्रियोंके विषयोंको विषके समान मानकर नीरस भोजन करता है उसके निर्मल रस परिव्याग तप होता है || भावार्थ- शरीर और इन्द्रियों में रागादिको बढ़ाने वाले भी, दूध, दही, गुरु, तैल आदि रसोंके त्यागको रस परिव्याग कहते हैं । अथवा अपनेको अच्छे लगनेवाले विग्ध, मधुर, खट्टा, कडुआ आदि रसोंके लागको रसपरित्याग कहते हैं । इन रसोंका त्याग कमसे अथवा एक साथ किया जाता है । मूलाचार में कहा है- 'दूध, दही, घी, तेल, गुड़, और नमकका छोड़ना अथवा तीता, कडुआ, कसैला खट्टा, और मीठा रसका छोड़ना रसपरित्याग है ।' रसपरित्याग से इन्दियोंका दमन होता है, क्यों कि सभी रस मादक और उत्तेजक होते हैं। इसीसे साधुको कैसा भोजन करना चाहिये यह बतलाते हुए लिखा है-जो नीरस हो, तुरंतका बनाया हुआ गर्मागर्म न हो अर्थात् शीतल हो गया हो, दालभात या दालरोटी इस तरह मिला हुआ न हो, अकेला मात हो, अकेली रोटी हो, अकेली दाल या अकेला शाक हो, रूखा हो, आचाम्ल ( माड़िया ) हो या आचाम्ल ओदन (गर्म पानी में मिले हुए खूब पके चावल ) हो इस तरहका भोजन साधुके लिये करने योग्य है ||४४६ ॥ १ बिस २ व विसयं पतिमाणो ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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