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________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा रसरुधिरमसिशोषणद्वारेणेन्द्रियसंयमं परिपालयतो भिक्षार्थिनो मुनेः एकगृहसप्तग्रहैकमागर्षदायक भाजमभोजनादिविषयः संकल्पो वृत्तिः परिसंख्यानम्, आशानित्रुस्यर्थं वा, गृह्द्दायकभोजनकालादीनां परिसंख्यानपूर्वकोऽवमहो नियमः वृत्तिः । आहारादौ प्रवर्तनं तस्याः प्रमाणं संख्या मर्यादा, अस्मिन् मार्गे अस्मिन् गृहे अनेन दीयमानं भोज्यं भोश्यामि इत्यादिसंकल्पेन मर्यादा । तस्य कस्य । यः मुनिः मुझे मन्ति अश्नाति । किं सत् 1 भोज्य आहारम् । कीदृशम् । एकादिगृहप्रमाणम् । एकस्मिन् गृहे द्रयोर्गृहयोः त्रिषु गृहेषु वा इत्यादिप्रमाणं परिसंख्या मर्यादा विधाय अहम् आहार मोक्ष्यामि, तदाई भुक्ष्ये भोजनं करिष्या मीति । अन्यथा न इत्यादिप्रमाणं यत्र भोज्ये किंवा अथवा संकल्पकल्पितं मनसा संकल्पिर्स विरसं विगतरसे रसरहितं नीरसम् । किंवत् । पशुवत् यथा हावभावविभ्रमशृङ्गारमण्डितनवयौवनिक कामिनी गोः धेनोः तृणखलकर्पासादिकं क्दाति । स्रा गौः अधोमुखेन तृणादिक्रमत्ति । न तु कामिन्यादिकावलोकनेन प्रयोजनम् । तथा भिक्षुर्भिक्षावलोकनमधोमुखेन करोति, तु कामिन्याविकावलोकनेन प्रयोजनं न तु परावरलोकनं गोवत् गोचर्यामार्गेण वा सुखादुनिः खादुभिक्ष। नावल्लेकते ॥ तद्यथा । यत्याचारे। "गोयरपमाण-दायगभाजणणाणाविधाण जे गणं । तह एसणस्स गणं विविधस्स य दुक्तिपरिसंसा गोवरस्य प्रमाण गोचरप्रमाण गृहप्रमाणं एतेषु एकद्वित्रिकादिषु गृहेषु प्रविशामि नान्येषु बहुषु । अस्य गृहस्य परिकरतयावस्थितां भूमिं प्रविशामि न गृहमित्यभिग्रहः । पाटकस्य संख्या पाटकस्य गृहस्य संख्या च करोति । दायको दातारः free तत्रापि बाल्या युवया स्थविरया निरलंकारया ब्राह्मण्या राजपुत्र्या तथा एवंविधेन पुरुषेण इत्येवमादि- अवमहः । भाजनानि एवंभूतेन भाजनेनैवानीत गृह्णामि सौवर्णेन कास्यभाजनेन राजतेन भृण्मयेनेत्यादि अभिग्रहः । यज्ञानाविधान मानाकारणं तस्य प्रहृणं स्वीकरणम् । मार्गे गृहाङ्गणे च स्थितोऽहं कोऽपि मां प्रतिगृहाति तदाहं तिष्ठामीति । तथा अनशनस्य विविधस्य नानाप्रकारस्य यहणम् भवमोपादानम् । अथ यवानं प्रातुर्क भोक्ष्ये नान्यत् । अवास मान् እ जाऊँगा अपना नीरस आहार मिलेगा तो आहार ग्रहण करूँगा और वैसा आहार मिलनेपर पचकी तरह उसे चर लेता है, उस मुनिके वृत्तिपरिसंख्यान तप होता है । भावार्थ - तपखी मुनि धर्म पालनके लिये शरीर की रक्षा करना आवश्यक समझते हैं, अतः वे शरीरको बनाये रखनेके लिये दिनमें एक चार श्रावकों की तरफ जाते हैं और विधिपूर्वक भोजन मिलता है, तो उसे ग्रहण कर लेते हैं । सारांश यह है कि वे भोजनके लिये नहीं जीते किन्तु जीनेके लिये भोजन करते हैं। अतः वे भोजनके लिये जानेसे पहले अपने मनमें अनेक प्रकार के संकल्प कर लेते हैं। जैसे, आज मैं भोजन के लिये एक घर या दोघही जाऊँगा, या एक मार्ग तक ही जाऊँगा दूसरा मार्ग नहीं पकदूँगा, या अमुक प्रकारका दाता अथवा अमुक प्रकारका भोजन मिलेगा तो भोजन करूँगा, अन्यथा बिना भोजन किये ही लौट आऊँगा । इस प्रकारकी वृत्तिके परिसंख्यान अर्थात् मर्यादाको वृत्तिपरिसंख्यान तप कहते हैं । यह तप भोजनकी आशासे मनको हटानेके लिये किया जाता है। इस तपके धारी मुनि अपने किये हुए संकल्प के अनुसार भोजन के मिलनेपर उसे पशुकी तरह चर जाते हैं। अर्थात् जैसे गौको यदि विभावसे युक्त, शृङ्गार किये हुए कोई सुन्दर तरुणी घास चारा देती है तो गौ नीचा मुख किये हुए उस चारेको चर जाती है, तरुणीके सौन्दर्यकी ओर नहीं निहारती । वैसे ही साधु भी नीचा मुख किये डए अपने हस्तपुटमें दिये हुए आहारको खाता है, देनेवाले सौन्दर्यकी ओर अथवा भोजनके खादकी ओर ध्यान नहीं देता । यस्यावार में कहा भी है- 'घरोंका प्रमाण करना कि में भोजन के लिये एक या दो या तीन आदि घर जाऊँगा, इससे अधिक घरोंमें नहीं जाऊँगा । भोजन देनेवाले दाताका प्रमाण करना कि भोजन देनेवाला पुरुष अथवा स्त्री अमुक प्रकारकी होगी तो भोजन करूँगा अन्यमा नहीं करूँगा। भोजनका प्रमाण करना कि अमुक प्रकारके पात्रमें लाये हुए भोजन को ही ग्रहण करूँगा ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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