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________________ -३२९] १२. धर्मानुप्रेक्षा २३५ शन्दात् चर्मगतहिकृतेलधृतजलादिमधुनवनीतं काजिक रात्रिभोजनं सजन्तुफलपश्च संधान द्विधान्यादिक प्रतादिसप्तव्यसन वन सेवते न भजते, नियमात निधयपूर्वकम् , माझाति न सेवते च । कीदृक्षम् । मद्यमांसमधुचर्मपात्रगतजमघृततेलमध्चादिक बहुत्रससमन्वितं द्वित्रिचतुःपञ्चन्द्रियजीवसहितम् ॥ ३२८॥ जो दिह-चित्तो कीरदि' एवं पि वयं णियाण-परिहीणो। धेरग्ग-भाविय-मणो सो वि य दसण-गुणो होदि ॥ ३२९॥ [छाया-या दृलचितः करोति एवम् अपि व्रतं निदानपरिहीनः । बैराग्यभावितमनाः सः अपि च दर्शनगुणः भवति ॥] च पुनः, सोऽपि न पूर्वः पूर्वोक्ता इत्यपिशब्दार्थः । दर्शनगुणः दार्शनिकः धावको भवति । स कः । यः एवं पूर्वोतं मद्यादिवर्जनलक्षणं प्रतं नियम प्रतिज्ञा प्रत्याख्यानं करोति बिद्धाति । कीदक्षः । दृढवितः निश्चलमनाः, मायाकमटपाषण्डरहित इत्यर्थः । पुनः किंलक्षणः । निदानपरिहीणः, निदानम् इहलोकपरलोकमुखामिलाषलक्षणं तेन रहित हेतः । पुनः कथंभूतः । बैराम्यभावितमनाः, वैराग्येण भवागभोगविरतिलक्षणेन भावितं मनः वि यस्य स व्यसनोंका ही सेवन करता है । ये समी वस्तुए निन्दनीय हैं। शराब पीनेसे मनुष्य बदहोश हो जाता है, उसे कार्य और अकार्यका ज्ञान नहीं रहता । मंस त्रस जीवोंका घात किये बिना बनता नहीं, तथा उसे खाकर भी मनुष्य निर्दयी और हिंसक बनजाता है। शहद तो मधुमक्खियोंके घातसे बनता है तथा उनका उगाल है | पीपल, बड़, गूलर वगैरहके फलोंमें त्रसजीव प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। चममें रखी हुई वस्तुओंके खानेसे मंस खानेका दोष लगता है । रात्रिभोजन तो अनेक रोगोंका घर है । अतः इन चीजोंका सेवन करना उचित नहीं है । तथा सप्त व्यसन मी विपत्तिके घर हैं । जुआ खेलनेसे पाण्डवोंने अपनी दौपदीतकको दावपर लगा दिया और फिर महाकष्ट भोगा | मांस खानेका व्यसनी होनेसे राजा बकको उसकी प्रजाने मार डाला। शराब पीनेके कारण यादववंश द्वीपायन मुनिके क्रोधसे नष्ट होगया । वेश्या सेवन करनेसे चारुदत्तकी बड़ी दुर्गति हुई । चोरी करनेसे शिवदत्तको कष्ट उठाना पड़ा | शिकार खेलनेसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मरकर नरकमें गया । और परवीगामी होनेसे रावणकी दुर्गति हुई । अतः व्यसन भी बुराईयोंकी जड़ हैं। फिर सम्यग्दृष्टि तो धर्मकी मूर्ति है। वह भी यदि अभक्ष्य वस्तुओंको खाता है और अन्याय करता है तो अपनेको और अपने धर्मको मलिन करने और लजानेके सिवा और क्या करता है ! अतः इनका त्यागीही दर्शनप्रतिमाका धारी होता है ॥ ३२८॥ अर्थ-वैराग्यसे जिसका मन भीगा हुआ है ऐसा जो श्रावक अपने चित्रको दृढ़ करके तथा निदानको छोड़कर उक्त व्रतोंको पालता है वही दर्शनिक श्रावक है ॥ भावार्थ-जो श्रावक संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होकर तथा इस लोक और परलोकके विषय सुखकी अभिलाषाको छोड़कर निश्चल चित्तसे पूर्वोक्त व्रतोंका पालन करता है वही दर्शनिक श्रावक कहा जाता है । टीकाकारने गाया के 'वि' शब्दका भी' अर्थ करके यह अर्थ किया है कि केवल पूर्वोकही दर्शनिक श्रावक नहीं होता किन्तु इस गाथामें बतलाया हुआ भी दर्शनिक प्रावक है किन्तु यहाँ हमें वि' शब्दका अर्थ 'ही' ठीक प्रतीत होता है; क्यों कि पहली गाथामें जो दर्शनिक श्रावकका स्वरूप बतलाया है उसीके ये तीन विशेषण और हैं । प्रथम तो उसे अपने मनमें दृढ़ निश्चय करके ही बतोंको स्वीकार करना चाहिये; नहीं तो परीषह आदिसे कष्ट पानेपर व्रतकी प्रतिज्ञासे चिग सकता है। दूसरे, १ आदर्श तु तैलरामठादिकं' इति पाठः। २ छमस वरचितो जो कुम्मदि। १५सणप्रविमा पंचत्वादि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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