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________________ rea उपना स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३२८दुर्गतिहेतुर्दुर्गतिकारणं द्वितीया दिनरकगमनहेतुः ज्योतिष्कव्यन्तरभवनषा सिसर्वेत्रीद्वादशमिथ्यावादेषु उत्पत्तिकारणं कर्म न बनातीत्यर्थः । तदपि प्रसिद्धं दुःकर्म अशुभकर्म नाशयति स्फेटयति समयं समयं प्रति गुणश्रेणिमात्रनिर्जरणं करोति निर्जरामुखेन विनाशयतीत्यर्थः । तत् किम् । यत् बहुभवेषु नरनारकायनेकभवेषु बद्धं कर्मबन्धनविषयं नीतं सम्यग्दृष्टिदुर्गतिकारणं कर्म न बध्नाति । किं नाम दुर्गतिरिति चेत् आचार्या श्रुवन्ति । [ "सु हेट्टिमासु पुढची जोहसरणभवण सबइत्थीम्सु । भारसमिच्छावादे सम्माद्विस्स गन्ध उववादो वचसु थावरवियले असणिणिगोंदेसु मेच्छकुभूभोगे । सम्माइही जीवा णो ववजति णियमेण ॥श्रु तथा रविचन्द्राचार्येणोक्त च । "इट्स्वधः पृथ्वीषु ज्योतिर्वनभवनजेषु च स्त्रीषु । विकलैकेन्द्रियजातिषु सम्यग्दृष्टेने चोत्पत्तिः॥" समस्त च । “दर्शना नातिर्यङ्गपुंसकीत्वानि । दुःकुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यन्नतिकाः ।" "दुर्गतावायुषो अन्धे सम्पत्वं यस्य जायते । गतिच्छेदो न तस्यास्ति तथाप्यरूपतरा स्थितिः ॥" "न सम्युक्तत्वसमं किंचित्काल्यै त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्व मिध्यात्वसमं नान्यत् तनुभृताम् ॥" इत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्जघन्य पात्रस्य सागारिणः केवलसम्यक्त्वमेव धर्ममेदः प्रथमं निरूपितः ॥ ३२७॥ अथ द्वितीयदर्शनका लक्षणं लक्षयति गाथायेन २३४ बहु-तस - समणिदं जं मज्जं मंसादि णिदिदं दवं । जो ण य सैवदि णियदं सो दंसण-सावओ होदि ॥ ३२८ ॥ [छाया - बहुत्रसमन्वितं यत भयं मांसादि निन्दितं व्यम् । यः न च सेवते नियतं स दर्शनश्रावकः भवति ॥] स प्रसिद्धः दर्शन श्रावकः सम्यत्तवपूर्वक श्रावकः दर्शनिकप्रतिमा परिणतः श्राद्धो भवति । स कः । यः दर्शनिक श्रावकः यत् म सुराम् आसवं न सेवते न भक्षयति नाति न पिबति । च पुनः मांसादि निन्दितं द्रव्यं मांसं पलं पिशितं द्विधातुजम् आदि पृथिवियोंमें, ज्योतिष्क व्यन्तर और भवनवासी देवोंमें, स्त्रियोंमें, विकलेन्द्रियों और एकेन्द्रियोंमें सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती समन्तभद्र स्वामीने मी कहा है- 'सभ्यग्दर्शन से शुद्ध व्रतरहित जीव भी मरकर नारकी, तिर्यय, नपुंसक, और स्त्री नहीं होते, तथा नीचकुलवाले, विकलाङ्ग, अल्पायु और दरिद्र नहीं होते ।' किन्तु यदि किसी जीवने पहले आयुबन्ध कर लिया हो और पीछे उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई हो तो गतिका छेद तो हो नहीं सकता, परन्तु आयु छिदकर बहुत थोड़ी रह जाती है। जैसे राजा श्रेणिकने सातवें नरककी आयुका बन्ध किया था । पीछे उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व हुआ तो नरक गति में तो उनको अवश्य जाना पड़ा परन्तु सातवें नरककी आयु छिदकर प्रथम नरककी जघन्य आयु शेष रह गई । अर्थात् ३३ सागर से घटकर केवल चौरासी हजार वर्षकी आयु शेष रह गई । अतः सम्यग्दृष्टि जीव दुर्गतिमें लेजानेवाले अशुभ कर्मका बन्ध नहीं करता | इतना ही नहीं बल्कि पहले अनेक में बांधे हुए अशुभ कर्मोंकी प्रतिसमय गुणश्रेणि निर्जरा करता है इसीसे सम्यक्त्वका माहात्म्य बतलाते हुए स्वामी समन्तभद्रने कहा है कि 'तीनों लोकों और तीनों कालोंमें सम्यक्त्वके बराबर कल्याणकारी वस्तु नहीं है और मिथ्यात्वके समान अकल्याणकारी वस्तु नहीं है।' इस प्रकार गृहस्थ धर्मके बारह भेदोंमेंसे प्रथम भेद अविरत सम्यग्दृष्टिका निरूपण आगे दो गाथाओंसे दूसरे मेद दर्शनिकका लक्षण कहते हैं । अर्थ- बहुत सजीवसे युक्त मध, मांस आदि निन्दनीय वस्तुओंका जो नियमसे सेवन नहीं करता यह दर्शनिक श्रावके है || भावार्थ - दर्शनिक श्रावक, दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव जिसमें पाये जाते हैं ऐसा शराव और मांस तथा आदि शब्दसे चमड़े के पात्रमें रखे हुए हींग, तेल, घी और जल वगैरह, तथा मधु, मक्खन, रात्रिभोजन, पंच उदुम्बर फल, अचार, मुरब्बे, घुना हुआ अनाज नहीं खाता और न सात । समाप्त हुआ || ३२७ ॥
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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