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________________ पञ्चदश - ३२७ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा શ मूलगुणाः अष्टचत्वारिंशत्संख्योपेताः कथिताः तर्हि उत्तरगुणा के इति चेदुच्यते । 'मद्य १ मांस २ मधु ३ स्यागः पश्चोदुम्बरखर्जनम् ८ तथा 'धूर्त १ मांसं २ सुरा ३ वेश्या ४ पापः ५ परदारता ६ । स्वेयेन ७ सह सप्तेति व्यसनानि विदूरयेत ॥ इत्यष्टी मूलगुणाः सप्त व्यसनानि च इति पञ्चविंशतिसंख्योपेताः (?) जयन्यपानस्य सम्यग्दृष्टे रुत्तरगुगा भवन्ति १५ । एवं त्रिषष्टिः सम्यक्त्वस्य गुणाः ६३ । प्रधाना मुख्या यस्य रां सम्यक्तवगुणप्रधानः स पुमान् देवेन्द्रनरेन्द्रवन्दिनो भवति, देवेन्द्राः सौन्द्रादयः नरेन्द्राः चक्रवर्त्यादयः तैः सम्यग्दृष्टिर्नरः वन्दितः नमस्करणीयः पूजनीयो भवति । त्यत्रतोऽपि व्रतरहितोऽपि द्वादशवतरहितोऽपि, अपिशब्दात् प्रेतसम्यक्त्वसहितोऽपि, सम्यत्तवान् स्वर्गसुखं सौधर्मादिदेवलोक शर्म प्राप्नोति मते । सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वेन कल्पवासिदेवानामायुर्मध्यते 'सम्यक्त्वं च' इति वचनात् । कीदृक्षं स्वर्गसुखम् । उत्तमं सर्वश्रेष्ठं प्रशस्यं सुखम् । पुनः कीदृक्षम् । विविधम् अनेकप्रकारं सौधर्माद्यच्युतस्वर्गपर्यन्तं विमानदेवाननाविक्रियाशुद्भवम् ॥ ३२६ ॥ सम्माहट्टी जीवो दुग्गदि हेतुं ण बंधदे कम्मं । बहु-भयेसुद्धं दुकन्मं तं पि णादि' ।। ३२७* ॥ [ छाया - सम्यन्दष्टि: जीवः दुर्गतिहेतु न बभाति कर्म यत् बहुभवेषु बद्धं दुष्कर्म तत् अपि नाशयति ॥ ] सम्यदृष्टिः जीवः कर्म अशुभायुर्नामनी वगोत्राधिकं न बध्नाति प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धैः बन्धनं न करोति । किंभूते करें । छोड़ने से सम्यक्त्वके पांच गुण होते हैं। तथा सात प्रकारके भयको त्यागनेसे सात गुण होते हैं, जो इस प्रकार हैं- इस लोकसम्बन्धी भयका त्याग, परलोकसम्बन्धी भयका स्याग, कोई पुरुष वगैरह मेरा रक्षक नहीं है इस प्रकारके अरक्षाभयका त्याग, आत्मरक्षा के उपाय दुर्ग आदिके अभाव में होनेवाले अगुप्ति भयका त्याग, मरण भयका त्याग, वेदना भयका त्याग और बिजली गिरने आदि रूप आकस्मिक भयका व्याग । तीन शल्योंके व्यागसे तीन गुण होते हैं । मायाशल्य अर्थात् दूसरों को ठगने आदिका त्याग, तत्त्वार्थ श्रद्धानके अभावरूप मिथ्यादर्शन शल्यका त्याग, विषयसुखकी अभिलाषारूप निदान शल्यका त्याग। इस तरह इन सबको मिलानेपर सम्यग्दृष्टिके ( २५+८+५ +७+३=४८ ) अड़तालीस मूल गुण होते हैं । तथा मध, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलोंका स्वाग और जुआ मांस मदिरा वेश्या शिकार परस्त्री और चोरी इन सात व्यसनोंका त्याग, इस तरह आठ मूल गुणों और सातों व्यसनोंके व्यागको मिलानेसे सम्यक्त्वके १५ उत्तर गुण होते हैं । सम्यक्त्वके इन ६३ गुणोंसे विशिष्ट व्यक्ति सबसे पूजित होता है। तथा व्रत न होनेपर मी वह देवलोकका सुख भोगता है क्योंकि सम्यक्त्वको कल्पवासी देवोंकी आयुके बन्धका कारण बतलाया है । अतः सम्यग्दृष्टि जीव मरकर सौधर्म आदि खर्गेौमें जन्म लेता है और वहाँ तरह तरहके सुख भोगता है || ३२६ ॥ अर्थ सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे कमौका बन्ध नहीं करता जो दुर्गतिके कारण हैं । बल्कि पहले अनेक में जो अशुभ कर्म बाँधे हैं उनका भी नाश कर देता है | भावार्थ- सम्यदृष्टिजीव दूसरे आदि नरक में लेजाने वाले अशुभ कर्मोंका बन्ध नहीं करता । आचार्यों का कहना है- 'नीचे के छः नरकोंमें, ज्योतिष्क, व्यन्तर और भवनवासी देवोंमें तथा सब प्रकारकी जियोंमें सम्यग्दृष्टि जन्म नहीं लेता । तथा पाँच स्थावर कायोंमें, असंज्ञी पश्चेन्द्रियोंमें, निगोदियाजीवोंमें और कुभोगभूमियोंमें सम्यग्दृष्टि नियमसे उत्पन्न नहीं होता ।' रविचन्द्राचार्यने भी कहा है कि नीचेकी छः १ प त मस्तसहितोऽपि । २ ब हुनगइ ३ गतं पणासेति । ४ व अविरसम्माशट्टी बहुत इत्यादि । कार्तिके० ३० 1
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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