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________________ -३०७] १२. धर्मानुप्रेक्षा राई- भोयण - विरओ मेहुण सारंभ-संग- चप्तो य । जाणुमय-विरओ उद्दिद्वाहार - विरदो य ।। ३०६ ॥ २१५ [ छाया - सम्यग्दर्शनशुद्धः रहितः मयादिस्थूलदोषैः । प्रतधारी सामायिकः पर्वत्रती प्रासुकाहारी ॥ रात्रिभोजनविरतः मैथुनसारम्भसंगत्यतः च । कार्यानुमोदविरतः उद्दिष्टाहारविरतः च ॥ ] प्रथमः सम्यग्दर्शनशुद्धः सम्यग्दर्शनेन सम्यक्त्वेन शुद्धः निर्मकः पचविंशतिभलरहितः सम्यग्दर्शनशुद्धः । 'मूतत्रयं मदावाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयचैते दृश्दोषाः पचविंशतिः ॥' इति पञ्चविंशतिमकरहितो ऽविरतसम्यग्दृष्टिः । १ । द्वितीयः मयादिस्थूलदोषै रहितः मद्यादयः मद्यमांसमधूनि पचोदुम्बरादिसजंतुफलानि । 'धूर्त मांसं सुरा देश्या पापर्द्धिः परदारता । स्तेयेन सह सप्तेति व्यसनानि बिदूरयेत् ॥' कन्दमूलमन्त्रशा काशनचर्मपात्रगत घृततैलजम्वादीनि च तै रहिनः । २ । तृतीयः व्रतधारी पचाणुव्रतगुणव्रतत्रयचतुःशिक्षात्रतानीति द्वादशवतधारी । ३ । चतुर्थः सामायिकवतोपेतः । ४ । पञ्चमः चतुःपर्वप्रोपघोपवासी । ५ । षष्ठः' प्रासुकाहारी जलफलधान्यादिसचित्तविरतत्रतधारी । ६ । सप्तमः रात्रिभोजनविरतः दिवामैथुनरहितश्व । ७ । अष्टमो मैथुनल्लकः चतुर्विधस्त्रीविरक्तो ब्रह्मचारी । ८ । आरम्मेण सह वर्तमानः सारम्भः स चासौ संग सारंभसंगः तेन त्यकः नवमः सारम्भत्यक्तः, कृषिवाणिज्यादिगृहस्थयोग्यव्यापारवर्जितः । ९ । दशमः संगत्यधः गृहस्थयोग्य क्षेत्रवास्तुधनधान्यादिदशविधपरिग्रहपरिवर्जितः । १० एकादशः कार्यानुमोदविरतः कार्येषु गमनागमनगृहादिनिष्पादनविवाहद्रव्योपार्जन व्यापारेषु व्याद्दारादिप्रारम्भेषु अनुमोदः अनुमतम् अनुमतिः तेन रहितः अनुमतिविनिवृतः । ११ । द्वादशः उद्दिष्टाचारविरतः स्वनिमित्तनिर्मिताहारश्रद्दणरहितः स्त्रोद्दिष्टपिण्डोपधिशयन व रासनादेर्विरतः उद्दिष्टविनिवृत्तः । १२ ॥ ३०५ -३०६ ।। अथ सम्यक्त्वोत्पत्तियोभ्यतां गमयति --भोसणी सुविसुद्धो जग्गमाण-पज्जतो' । संसार - तडे णिडो' णाणी पावेइ सम्मत्तं ॥ ३०७ ॥ अर्थ- शुद्ध सम्यग्दृष्टि, मद्य आदि स्थूल दोषोंसे रहित सम्यग्दृष्टि, व्रतधारी, सामायिकत्रती, पर्वत्रती, प्रासुकाहारी, रात्रिभोजनत्यागी, मैथुनत्यागी, आरम्भल्यागी, परिग्रहत्यागी, कार्यानुमोदविरत और उद्दिष्ट आहारविरत, ये श्रावक धर्मके बारह भेद हैं । भावार्थ सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष बतलाये हैं-तीन मूढता, आठ मद, छः अनायतन और आठ शंका आदि दोष । इन पचीस मलोंसे रहित अविरत सम्यग्दृष्टि प्रथम मेद है । मद्य, मांस, मधु, पाँच उदुम्बर फल, और जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, परस्त्री और चोरी इन सात व्यसनोंका त्यागी शुद्ध सम्यग्दृष्टि दूसरा मेद है। पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षात्रतोंका पालक श्रावक तीसरा भेद है। सामायिक व्रतका पालक चौथा भेद है । चारों पर्वो प्रोषधोपवास व्रत करनेवाला पांचवा मेद है। सचित्त जल, फल, धान्य वगैरहका त्यागी छठा भेद है। रात्रिभोजन त्याग सातवाँ भेद है। कोई आचार्य इसके स्थानमें दिवा मैथुन त्याग कहते हैं। चार प्रकारकी स्त्रीका लागी अर्थात् ब्रह्मचारी आठवीं भेद हैं। गृहस्थ योग्य खेती व्यापार आदि आरम्भका त्याग नौवां भेद है। खेत, मकान, धन, धान्य आदि दस प्रकारके परिग्रहका स्याग दसवाँ भेद है। आना, जाना, घर वगैरह बनवाना, विवाह करना, धन कमाना आदि, आरम्भोंमें अनुमति न देना, ग्याहरवां भेद है। अपने उद्देशसे बनाये गये आहार आदिका त्याग, बारहवाँ मेद है । ये श्रावक धर्मके बारह भेद हैं ।। ३०५-३०६ ॥ प्रयमही सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी योग्यता बतलाते हैं । अर्थ-चारों गतिका भव्य, संज्ञी, विशुद्ध परिणामी जागता हुआ, 1 १ अ वगर, मंग चदि । २ । ३ ब ग नियो ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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