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२१५ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ३०४रामरावणादयः, दूरार्थाः मन्दरनरकवर्यादयः तान् पदार्थान् सर्वशाभावे को वेत्ति को जागाति । अपितुन सर्वज्ञ एवं जानाति । अस्ति कथितेषां प्रत्यक्ष देता तदावेदकमनुमान, सूक्ष्मान्तरितवूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः अनुमेयत्वादम्यादिवविति। अथ इन्द्रियप्रत्यक्ष तदविदकं भविष्यतीति चेन्न । इन्द्रियज्ञानं स्पर्शनादीन्द्रियप्रत्यक्षशान न जानाति । के तम्। स्यूलमपि केवलम् । अपिशब्दान् सूक्ष्मं स्थूलसूक्ष्ममपि पदार्थम् । कीददं तम् । अशेषपर्याय अशेषाः समाः असीतानागतवर्तमानकालविषयाः पर्यायाः परिणामाः विद्यन्ते यस्य स तथोक्तः । स्थूलमर्य समप्रपर्यायसहितं पदार्थम् इन्द्रियशानं न जानाति ।।३०३॥ अथ सबैज्ञास्तित्वे सिद्धे तदुपदिष्टो धर्म एवानीकर्तव्य इत्यावेदयति
तेणुवइट्ठो' धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं ।
पढमो बारह-भेओ दह-मेओ' भासिओ बिदिओ ।। ३०४॥ [छाया-तेन उपदिष्टः धर्मः संगासक्तानां तथा असंगानाम् । प्रथमः द्वादशभेदः दशमेदः भाषितः द्वितीयः ॥] तेन सर्वक्षेन सर्वदर्शिना वीतरागदेवन धर्मः वृषः उपदिष्टः कथितः । आत्मानमिष्टे नरेन्द्रसुरेन्द्रमुनीन्दवन्ये मुधिस्थाने धत्त इति धर्मः । अथवा संसारस्थान् प्राणिनो धरति धास्यतीति वा धर्मः । वा संसारे पतन्त जीवमुत्य नागेन्द्रनरेनदेवेन्द्रादिवन्येऽव्यावाधानन्तमुखाधनन्तगुणलक्षणे मोक्षपदे धरतीति धर्मः । तस्य भेदी द्वौ । को इति चेत् । यो संगासकानां संगेषु परिग्रहेषु आसक्ता ये संगासक्तास्तेषां परिग्रहरताना श्रावकाणां धर्मः। तह तथा असंगाना न विद्यन्ते संगाः बाह्याभ्यन्तरपरिप्रहाः येषां ते असंगास्तेषाम् असंगानां बायाभ्यन्तरपरिप्रहपरित्यकाना निम्रन्थानां मुनीनां धर्मः। तयोर्धर्मयोमध्ये प्रथमः धारकगोचरो धर्मः द्वादशमेदः सम्यादर्शनशुद्धाविवादशप्रकारोभाषितः, द्वितीयः मुनीश्वरगोबरोधर्म- दशमेदा उत्तमक्षमादिदशप्रकारो वृषो भाषितः प्रकाशितः ॥३.४ ॥ अथ तान्प्रथमोदिष्टान् द्वादशभेदान् गायादयेन प्ररूपयति
सम्मइंसण-सुद्धो रहिओ मज्जाइ-थूल-दोसेहिं ।
वय-धारी सामाइउ' पध्व-वई पासुयाहारी" ॥ ३०५॥ समन्तभद्र, खामीने आप्तमीमांसा सर्वज्ञकी सिद्धि करते हुए कहा है-सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवती पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं क्योंकि उन्हें हम अनुमानसे जान सकते हैं । जो वस्तु अनुमानसे जानी जा सकती है वह किसीके प्रत्यक्ष भी होती है जैसे आग । शायद कोई कहे कि इन पदार्योका ज्ञान तो इन्द्रियसे हो सकता है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्यों कि इन्द्रियाँ तो सम्बद्ध वर्तमान
और स्थूल पदार्थोंको ही जाननेमें समर्थ हैं । अत: वें स्थूल पदार्थोकी भी भूत भविष्यत सब पर्यायोंको नहीं जानती है । तब अतीन्द्रिय पदार्थोंको कैसे जान सकती हैं? ॥३०३ ॥ सर्वका अस्तिस्व सिद्ध करके आचार्य सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट धर्मका वर्णन करते हैं । अर्थ-सर्वनके द्वारा कहा हुआ धर्म दो प्रकारका है-एक तो संगासक्त अर्थात् गृहस्थका धर्म और एक असंग अर्थात् निर्ग्रन्थ मुनिका धर्म । प्रयमके बारह भेद कहे हैं और दूसरेके दस भेद कहे है ।। भावार्थ-जो आत्माको नरेन्द्र, मरेन्द्र और मुनीन्द्रसे वन्दनीय मुक्तिस्थानमें धरता है उसे धर्म कहते हैं । अथवा जो संसारी प्राणियोंको धरता है यानी उनका उद्धार करता है वह धर्म है । अथवा जो संसार समुद्रमें गिरते हुए जीवोंको उठाकर नरेंद्र, देवेंद्र वगैरहसे पूजित अनन्त सुख आदि अनन्तगुणोंसे युक्त मोक्षपदमें धरता है उसे धर्म कहते हैं । सर्वज्ञ भगवानने उस धर्मके दो भेद किये हैं-एक परिग्रहसे घिरे हुए गृहस्थोंके लिये
और एक परिग्रह रहित मुनियोंके लिये । श्रावक धर्म बारह प्रकारका कहा है और मुनि धर्म दस प्रकारका कहा है ॥ ३०४ ॥ आगे दो गाथाओंके द्वारा श्रावक धर्मके बारह भेदौको कहते हैं
१ गतेणबाटो। २ ल म स ग दसमेओ। १मस बमधारी सामहलो, ग बयधरी सामाईओ (सामाईस)। ग पासुआहारी, में फासुआहारी।
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