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________________ -३०३] १५. धर्मानुप्रेक्षा [छाया-यः जानाति प्रत्यक्ष त्रिकालगुणपर्ययैः संयुक्तम् । लोकालोक सकलं स सर्वशः भवेत् देवः ॥] स जग। तासिद्धः सर्वज्ञः सर्व लोकालोके जानातीति वेत्तौति सर्वज्ञः । उक्त च। 'य: सर्वाणि चराचराणि विविघटण्याणि तेषां गुणान, पर्यायानपि भूतभाविभवतः सर्वान् सदा सर्वथा । जानीते युमपत्प्रतिक्षामतः सर्वज्ञ इत्युच्यते, सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः ॥ इति सर्वज्ञः । देव: दीव्यति क्रीडति परमानन्दपने अनन्तचतुष्टयात्मके परमात्मनि वा देव इति सर्वज्ञदेवो भवेत् । अन्यो ब्रह्मा विष्णुमहेशादिको न । स को देवः । यो जानानि बेनि पदयति । कि तन् । लोकालोकं लोक त्रिभुवनम् अलोकः ततो वहिलाकः तत् लोकालोके सकलं संपूर्णम् , प्रत्यक्षं यथा भवति तथा प्रत्यक्षीभूत व्यक्तरूपं करतलगतमणिबत् जानाति पश्यति । पुनः कीदृक्षम् । त्रिकालगुणपर्यायः संयुक्त, गुणाः केवलज्ञानादयः, पर्यायाः अगुरलवादयः, गुणाच पर्यायाश्च गुणपर्यायाः, ते निघालगुणपर्यायः सहित लोकालोके जानाति । ननु लोकालोक शानिनां सर्वशत्वं चेत् तर्हि श्रुतज्ञानिनामपि सर्वशत्वं भविष्यति स्पद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने इत्याशङ्कामपनुदन् प्रत्यक्ष विशेषणं समर्थयति । श्रुतज्ञानिनः सर्व परोक्ष पश्यन्ति श्रुतेन, कंवलज्ञानिनः सर्व लोकालोक वितिमिरं सगुणपर्याय प्रत्यक्ष जानन्ति पश्यन्ति इस्पर्थः ।। ३०२॥ अथ सर्वज्ञाभाववादिनः भप्रभाकरचार्वाकादीन् प्रतिक्षिपनाह जदि ण हदि सम्बहता को जाणदि अदिदियं अस्थं । इंदिय-णाणं ण मुणदि थूलं पि' असेस-पज्जायं ॥ ३०३ ॥ [छाया-यदि न भवति सर्वज्ञः ततः कः जानाति अतीन्द्रियम् अर्थम् । इन्द्रियज्ञानं न जानाति स्थूलम् अपि अशेषपर्यायम् ॥ ननु नास्ति सर्वशोऽनुपलब्धेः इति चापाकाः, नास्ति सर्वज्ञः प्रमाणपत्रकाविषयत्वात् इति मीमांसकाश्च वदन्ति, तान् प्रत्याह । सर्वशो न भवति यदि चेत् तो* तर्हि अतीन्द्रियम् अर्थम् इन्द्रियाणामगम्य वस्तु सूक्ष्मान्तरितरार्थ को वेति । सूक्ष्मार्था हि परमाम्वादयः, अन्तरितार्थाः स्वभावान्तरिताः जीवपुण्यपापादयः, कालान्तरिता भावी और वर्तमान सब पर्यायोंको एक साथ प्रतिसमय पूरी तरहसे जानता है उसे सर्पज्ञ कहते हैं । उस सर्वज्ञ जिनेश्वर महावीरको नमस्कार हो । किन्तु इस तरहसे तो श्रुतज्ञानीको भी सर्वज्ञ कहा जा सकेगा; क्योंकि वह भी आगमके द्वारा सब पदार्थोंको जानता है । इसीसे श्रुतज्ञानीको केवलज्ञानीके तुल्य बतलाया है । इस आपत्तिको दूर करनेके लिये ही जाननेके पहले प्रत्यक्ष विशेषण रखा गया है । श्रुतवानी सबको परोक्षरूपसे जानता है इसलिये उसे सर्वज्ञ नहीं कहा जा सकता । जो समस्त लोकालोकको हथेलीपर रखी हुई मणिकी तरह प्रत्यक्ष जानते हैं वही सर्वज्ञ भगवान हैं ॥ ३०२ ।। आगे सर्वज्ञको न माननेवाले मीमांसकोंका खण्डन करते है। अर्थ-यदि सर्वज्ञ न होता तो असीन्द्रिय पदार्थको कौन जानता ? इन्द्रियज्ञान तो सब स्थूल पर्यायोंको भी नहीं जानता | भावार्थचार्वाक और मीमांसक सर्वज्ञको नहीं मानते। चार्वाक तो एक इन्द्रिय प्रत्यक्षको ही प्रमाण मानता है। जो इन्द्रियोंका विषय नहीं है वह कोई वस्तु ही नहीं, ऐसा उसका मत है । सर्वज्ञ भी किसी इन्द्रियसे गोचर नहीं होता अतः वह नहीं है, यह चार्वाकका कहना है । मीमांसक छ प्रमाण मानता है-प्रत्यक्ष, अनुमाम, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अभाव । इनमेंसे शुरुके पांच प्रमाण वस्तुके सद्भावको विषय करते हैं । जो इन पाँच प्रमाणोंका विषय नहीं है वह कोई वस्तु नहीं है । सर्वज्ञ भी पांचों प्रमाणोंका विषय नहीं है अतः सर्वज्ञ नहीं है ऐसा मीमांसकका मत है । आचार्य कहते हैं कि जगतमें ऐसे बहुतसे पदार्थ हैं जो इन्द्रियगम्य नहीं हैं । जैसे सूक्ष्म पदार्थ परमाणु, अन्तरित पदार्य पूर्वकालमें होगये राम रावण वगैरह और दूरवर्ती पदार्थ सुमेह वगैरह । ये पदार्थ इन्द्रियोंके द्वारा नहीं देखे जा सकते । यदि कोई सर्वज्ञ न होता तो इन अतीन्द्रिय पदार्थीका अस्तित्व हमें कैसे ज्ञात होता इसीसे १ गनई दिय । १ स बि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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