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१२. धर्मानुप्रेक्षा
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औषधाख्यं भवेत् । तस्य कस्य । यः द्वयोः पवैणोः पर्वण्योः अष्टम्यां चतुर्दश्यां च सदा पक्ष पक्षं अति उपवास स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दलक्षणे पञ्चमु विषयेषु परिहृत्सुक्यानि पश्चापि इन्द्रियाणि उपेत्य भागत्य तस्मिन् उपवासे वसन्ति इस्युपवासः, अशनपानखाथ लेलक्षणश्चतुर्विधा द्वारपरिहार इत्यर्थः । उत च उपवासस्य लक्षणम् । "कवायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लगन विदुः ॥” इति तम् उपत्रासं क्षपणाम् अनशनं करोति विदुषाति तच्छक्त्यभावे एकभक्कम् एकवारभोजनं करोति । तथा निर्विकृर्ति शुद्धतः शुद्धकालभोजनं करोति वा दुग्धादिपरसादिरहितम् आहारं भुङ्क्ते । उ च । आहारो भुज्यते दुग्धादिकपञ्चरखातिगः । दमनायाक्षशत्रूणां यः सा निर्विकृतिमता इस एवमुक्तप्रकारेणादिशब्दात् आचामलकाजि श्रहारस्याहारं मनचिन्त्यप्रमुखं करोति । [ "समुष्णे कालिके शुद्धमालाभ्य भुज्यतेऽशनम् । जितेन्द्रियैस्तपोऽर्थं यदाचामल जय्यतेऽत्र सः ॥ शुद्धोदनं जलेन मह भोजन काजिकाहारम् । तस्य कस्य । यः प्रधावती परिहरति निषेधयति त्यजति । कान् । स्नानविलेपन भूषणञ्जी संसर्गगन्धधूपप्रवीपावरीन, ज्ञानं शीतोष्णजलेन मज्जनं तैलादिमर्दनं कर्कोटिकादिकेन स्फेटनम् विलेपनं चन्दनकर्पूरकुङ्कुमागरुकस्तूरिकादिभिर्विलेपनं शरीर विलेपनम् भूषणं हारमुकुटकुण्डल केयूरकटकमु विकाद्याभरणम्, स्त्रीसंसर्गः खीणां युवतीनां मैथुनस्पर्शनपादसंवाहननिरीक्षणशयनौपवेशनवार्तादिभिः संसर्गः संयोगः स्वर्शनम् गन्धः सुगन्धः पुष्पसुगन्धचूर्णागरुर सप्रमुखः, धूपः शरीरधूपनं केशवखादिधूपनं च दीपस्य ज्वलनं ज्वालनकरणं च द्वन्द्वसमासः त एवादिर्येषां ते तथोक्तास्तान् । श्रादिशब्दात् सन्चित्तजलकणलचणभूम्य मिवातकरणवनस्पतितत्फलपुष्पकुमा लच्छेदादिव्यापारान् परिहरति । कीदृक्षः । ज्ञानी मेदज्ञानी स्वपर विवेचन विज्ञानी । किं कृत्वा वैराग्याभरणभूषणं कृत्वा भवाशभोगविरक्तत्या भरणेनात्मानं भूषयित्वा निरारम्भः
करना चाहिये, हार मुकुट कुण्डल, केयूर, कड़े, अगूंठी आदि आभूषण नहीं पहनने चाहिये, त्रियोंके साथ मैथुन नहीं करना चाहिये और न उनका आलिंगन करना चाहिये, न उनसे पैर गैरह दबाना चाहिये, न उन्हें ताकना चाहिये, न उनके साथ सोना या उठना बैठना चाहिये, सुगन्धित पुष्प चूर्ण वगैरहका सेवन नहीं करना चहिये, न शरीर वस्त्र वगैरहको सुवासित धूपसे सुवासित करना चाहिये और न दीपक वगैरह जलाना चाहिये । भूमि, जल, अग्ि वगैरह को खोदना, जलाना बुझाना आदि कार्य नहीं करने चाहिये और न वनस्पति वगैरहका छेदन भेदन आदि करना चाहिये । संसार शरीर और भोगसे विरक्तिको ही अपना आभूषण बनाकर साधुओंके निवासस्थानपर चैत्यालयमें अथवा अपने उपवासगृहमें जाकर धर्मकथाके सुनने सुनाने में मनको लगाना चाहिये । ऐसे श्रावकको प्रोषधोपवासक्ती कहते हैं । आचार्य समन्तभद्रने भी लिखा है--' चतुर्दशी और अष्टमीके दिन सदा स्वेच्छापूर्वक चारों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रोषधोपवास है । उपवासके दिन पाँचों पापोंका, अलंकार, आरम्भ, गन्ध, पुष्प, जान, अंजन और नास लेनेका त्याग करना चाहिये । कानोंसे बड़ी चाहके साथ धर्मरूपी अमृतका स्वयं पान करना चाहिये और दूसरोंको पान कराना चाहिये । तथा आलस्य छोड़कर ज्ञान और ध्यान में तत्पर रहना चाहिये। चारों प्रकारके आहारके छोड़नेको उपवास कहते हैं, और एक बार भोजन करनेको प्रोषन कहते हैं । अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास करके नौमी और पंद्रसको एक बार भोजन करना प्रोषधोपवास है । इस प्रोषधोपत्रास व्रत के पाँच अतिचार हैं-भूखसे पीड़ित होनेके कारण 'जन्तु है या नहीं' यह देख्ने मिना और मृदु उपकरणसे साफ किये बिना पूजा के उपकरण तथा अपने पहिरने के आदिको उठाना, बिना देखी बिना साफ की हुई जमीन में मलमूत्र करना, बिना देखी बिना साफ की हुई भूमिमें चटाई वगैरह बिछाना, भूखसे पीड़ित होनेके कारण आवश्यक छ कर्मो में अनादर
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