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________________ २६० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३५८ अन्यथाप्रवृत्तिः मनोदुःप्रणिधानम् ३ । प्रयोऽतिचारा भवन्ति । चतुर्थोऽतिचारः अनादरः अनुत्साहः अनुद्यमः ४ । पचमोऽतिचारः स्मृनुपस्थापनं स्मृतेरनुपस्थापनं विस्मृतिः, न ज्ञायते मया पठितं किं वा न पठितम्, एकाग्रतारहितत्वमित्यर्थः ५ । तथा चोक्तं च।[" वाक्कायमानसानां दुःप्रणिधानान्यनादरास्मरणे । सामयिकस्यात्तिगमा व्यज्यन्ते पञ्च भावेन ॥” इति ॥ ३५५-५७ ॥ इति स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाव्याख्याने प्रथमं सामायिकशिक्षावतं व्याख्यातम् १ । अथ द्वितीय शिक्षाश्रतं प्रोषधोपनासाख्यं गायाद्वयेन व्याकरोति हाण-विलेवण- भूसण इत्थी संसग्ग-गंध-धूवादी' | जो परिहरेदेि' गाणी बेरग्गाभूस किया ।। ६५८ ॥ दोसु वि पधेसु सया उववाएं एय भत्तणिबियी । जो कुणदि एकमाई तस्स वयं पोसहं बिदियं ॥ ३५९ ॥ [ छाया-स्नान विलेपनभूषणस्त्रीसंसर्गगन्धधूपादीन् । यः परिहरति ज्ञानी वैराग्याभूषणं कृत्वा ॥ द्वयोः अपि पर्वणोः सदा उपत्रासम् एकभक्तनिर्विकृती । यः करोति एवमादीन् तस्य वतं प्रोषधं द्वितीयम् ॥ ] तस्य द्वितीयं शिक्षाव "वचनका दुष्प्रणिधान, कायका दुष्प्रणिधान, मनका दुष्प्रणिधान, अनादर और अस्मरण ये पांच सामा किके अतिचार हैं।" इस प्रकार सामायिक नामक प्रथम शिक्षावतका व्याख्यान समाप्त हुवा || ३५५ - ३५७ ॥ आगे दो गाथाओंसे प्रोषधोपवास नामक दूसरे शिक्षावतको कहते हैं । अर्थ- जो ज्ञानी श्रावक सदा दोनों पर्वोंमें स्नान, विलेपन, भूषण, स्त्रीका संसर्ग, गंध, धूप, दीप आदिका त्याग करता है और वैराग्यरूपी आभरणसे भूषित होकर उपवास या एकबार भोजन अथवा निर्विकार भोजन आदि करता है उसके प्रोषधोपचास नामक दूसरा शिक्षावत होता है ॥ भावार्थ - प्रोषधोपवासव्रतका पालक श्रावक प्रत्येक पक्षके दो पर्वो अर्थात् प्रत्येक अष्टमी और प्रत्येक चतुर्दशी के दिन उपवास करता है अर्थात् खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय चारों प्रकारके आहारको नहीं करता। वैसे तो केवल पेटको भूला रखनेका ही नाम उपवास नहीं है, बल्कि पाँचों इन्द्रियाँ अपने स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द इन पाँचों विषयोंमें निरुत्सुक होकर रहें, यानी अपने अपने विषयके प्रति उदासीन हों, उसका नाम उपवास है । उपवासका लक्षण इस प्रकार बतलाया है- 'जिसमें कषाय और विषयरूपी आहारका लाग किया जाता है वही उपवास है। बाकी तो लांघन है।' अर्थात् खाना पीना छोड़ देना तो लंघन है जो ज्वर वगैरह हो जानेपर किया जाता है। उपवास तो यही है जिसमें खानपानके साथ विषय और कषायको भी छोड़ा जाता है। किन्तु जो उपवास करनेमें असमर्थ हों वे एकबार भोजन कर सकते हैं। अथवा दूध आदि रसोंको छोड़कर शुद्ध महेके साथ किसी एक शुद्ध अन्नका निर्विकार भोजन कर सकते हैं उसे निर्विकृति कहते हैं । निर्विकृतिका स्वरूप इस प्रकार बतलाया हैं-" इन्द्रियरूपी शत्रुओंके दमन के लिये दूध आदि पांच रसोंसे रहित भोजन किया जाता है उसे निर्विकृति कहते हैं । " गाथाके आदि शब्दसे उसदिन आचाम्ल या कांजी आदिका भोजन भी किया जा सकता है। गर्म कांजीके साथ केवल भात खानेको आचाम्ल कहते हैं और चावल के माण्डसे जो माडिया बनाया जाता है उसे कांजी कहते है । अस्तु । उपवास दिन श्रावकको ज्ञान नहीं करना चाहिये, तैलमर्दन नहीं करना चाहिये, चन्दन कपूर केसर अगरु कस्तूरी आदिका लेपन नहीं १ ख स ग गंधभूवदीवादि, म धूवादि । २ परिहरेश । ३ म रा ( गचेगा, सभेणा ) भरणभूखणं किवा ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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